आज बड़ा दिन है। अब तो कुछ ही देर में 'है' के स्थान पर 'था' कहना पड़ेगा। आज क्या किया? सुबह थोड़ी देर से सुबह हुई। हर काम में थोड़ी - थोड़ी देरी हुई जैसे कि आज शाम भी थोड़ी देर से हुई लेकिन इस अलसाई सुबह में नाश्ते के बाद हुआ यह कि छत पर लेटे - लेटे याद किया कि आज पोलैंड की मशहूर कवयित्री हालीना पोस्वियातोव्सका (१९३५ - १९६७) के जीवन प्रंसंगों पर अच्छी सामग्री पढ़ने को मिल गई थी और उसे अनुवाद करने के लिए रख लिया गया है। इसी क्रम में हालीना की बहुत सी कवितायें याद आ गईं और आलस्य को बाहर और परे करते हुए कागज की सतह पर कुछ घसीट लिया गया यूँ ही। आप चाहें तो इसे कविता की तरह पढ़ सकते हैं । और क्या कहूँ....
अंकुरण
( हालीना पोस्वियातोव्सका की कविताओं से गुजरते हुए )
यहाँ जमी हुई ओस है
और यहीं है पिघलती हुई बर्फ़
यहीं पर धूप के कैनवस पर उभरते हैं चित्र
और पानी पर लिखी जाती है प्रेम की इबारत।
सात समुद्रों और सात आसमानों को लाँघकर
बार - बार इसी पृथ्वी पर लौटती है देह
जिसमें वास करने को व्याकुल है एक आत्मा अतृप्त
मधुमक्खियाँ बताती हैं इसी ठिकाने की राह
और अपनत्व के छत्ते से टपकने लगता है शहद।
कविता क्या है
शायद शब्दों का खेल कोई एक
शायद स्वर और व्यंजनों की क्रीड़ा अबूझ
धीरे - धीरे हम प्रविष्ट होते हैं एक दु:ख भरे संसार में
जहाँ से झाँकता है प्रेम का उद्दीप्त सूर्य
और आवाजों की अनंत आँखों से देखते हैं
उदासी की उपत्यका में लहलहाते सूरजमुखी के खेत।
एक स्त्री की लेखनी का स्पर्श चीजों के मायने बदल देता है
हम देखते हैं कि ऐसे भी देखा जा सकता है
देखे हुए संसार का रोजनामचा।
हम पाते हैं कि भीतर ही भीतर
अस्तित्व होता जा रहा है लगभग आर्द्र
और जीवन की सूखी चट्टानों पर अंकुरण को विकल है
एक छोटे - से बीज में छिपा जंगल का समूचा ऐश्वर्य।
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हालीना पोस्वियातोव्सका की कुछ कविताओं के अनुवाद यहाँ और यहाँ भी....
14 टिप्पणियां:
बढ़िया अनुवाद है!!
हम देखते हैं कि ऐसे भी देखा जा सकता है....
बहुत बढि़या।
अपनत्व के छत्ते से टपकने लगता है शहद....क्या ख़ूब कही दद्दा. मालवे की मादक ठंड में इस कविता को पढ़ना एक रूहानी आनंद दे रहा है...माशा-अल्लाह !
यह विरलतम अनुभूति कहाँ मिलेगी सिवाय इस चिट्ठे के ! मौन पाठक हूँ, समझ में नहीं आता क्या कहूँ । ऐसी कविताओं को रस-रक्त में घुलाता-मिलाता हूँ । कोई समीक्षा, विवेचना अतार्किक लगती है मुझे । कविता की यह पंक्तियाँ -
"हम देखते हैं कि ऐसे भी देखा जा सकता है
देखे हुए संसार का रोजनामचा।"
पढ़कर लगता है कि ब्लॉगिंग के खेल से दूर रहकर रचना का वितान ऐसे तन सकता है, रचनाधर्मिता ऐसे साँस ले सकती है , और बिखर सकता है अर्थ-वैभव सहज ही ।
नमन !
एक स्त्री की लेखनी का स्पर्श चीजों के मायने बदल देता है
हम देखते हैं कि ऐसे भी देखा जा सकता है
देखे हुए संसार का रोजनामचा.....
हम तो इन पंक्तियों की मुग्धता पर ही अटक गए हैं ....सिर्फ लिखने ही नै ....स्त्री का आस पास होना भी बहुत से मायने बदल देता है ....समझते सभी है ...मानते बहुत काम है ...
बहुत आभार ...!!
अनुवाद बहुत सुन्दर है!
शब्दों का बहुत ही सन्तुलित और जीवन्त प्रयोग किया गया है!
एक स्त्री की लेखनी का स्पर्श चीजों के मायने बदल देता है
हम देखते हैं कि ऐसे भी देखा जा सकता है
देखे हुए संसार का रोजनामचा।
......
अपने अपने नजरिये है ....
sundar kavita
behad khoobsoorat.........adwitiya.
Sahi kaha aapne.
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क्या आपने लोहे को तैरते देखा है?
पुरुषों के श्रेष्ठता के 'जींस' से कैसे निपटे नारी?
ek sundar rachna ke anuvad ke liye bahut badhai ...stri ka achchha chitran...
"हम देखते हैं कि ऐसे भी देखा जा सकता है
देखे हुए संसार का रोजनामचा।"
yahi hai saar....
सुम्दर रचना के अनुवाद के लिये बधाई और धन्यवाद्
पहली बार आपके ब्लॉग पर आये हैं और मंत्र मुग्ध हैं .. अफसोस इस बात का है की अब तक आपके ब्लॉग से अनजान क्यों रहे !
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