रामगढ़ ( जिला : नैनीताल ) उत्तराखंड महादेवी वर्मा सृजन पीठ में आयोजित 'हिन्दी कहानी और कविता पर अंतरंग बातचीत' के दो दिवसीय आयोजन ( ३० एवं ३१ अक्टूबर २००९ ) के दो दिनों के दौरान तीन कवितायें लिखी थीं जिनमें से दो को तो इसी जगह प्रस्तुत कर चुका हूँ। आज अभी कुछ मिनट पहले कविताओं की कंप्यूटरी फाइल को उलट - पुलट करते हुए तीसरी कविता को दोबारा लिखा - सा है और मन कर रहा है इसे हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में सबके साथ साझा कर लिया जाय , सो कविता को अपनी बात कहने का स्पेस देते हुए और स्वयं अधिक कुछ न कहते हुए आइए देखते - पढ़ते हैं यह कविता :
वही हिमालय वही नगाधिराज
अभी तो
कवि कविता करते हैं
और कहानीकार बुनते हैं कोई कहानी
आलोचक चुप ही रहते हैं
उन्हें नहीं सूझता गुण - दोष।
अभी तो
आलमारियों में बन्द हैं किताबें
जो खुद से बतियाती हैं निश्शब्द
सड़क पहचानती है सबके पैरों के निशान
पेड़ इशारा करते हैं हिमशिखरों की ओर।
संगोष्ठी के समापन पर
करतल ध्वनि करता है हिमालय
शायद कोई नहीं देख रहा है
विदा में उठा हुआ उसका हाथ।
मैदानों में उतरकर
कवि कविता करते रहेंगे
कहानीकार बुनते रहेंगे कहानियाँ
आलोचक चुप्पी तोड़ेंगे और निकालेंगे मीन - मेख
फिर भी
सबके सपनों में आएगा हिमालय।
हाँ , वही हिमालय
वही नगाधिराज
जिसके लिए प्रकृति के सुकुमार कवि कहे जाने वाले
सुमित्रानंदन ने अपनी कविताओं में लुटाया है बेशुमार सोना।
वही हिमालय
जहाँ महादेवी वर्मा को बादल में दिखा था रूपसी का केशपाश।
वही हिमालय
जहाँ खिलते हैं बुराँश
और जहाँ ग्लेशियरों की उर्वर कोख से
मैदानों को आर्द्र करने के लिए जन्म लेती हैं सदानीरा नदियाँ।
आइए, यह भी याद करें
यह वही हिमालय है - वही नगाधिराज
हमारी लालसाओं की धधकती भठ्ठी की आँच से
पिघल रही है जिसकी धवल देह
और कोपेनहेगेन के सम्म्लेन द्वार तक
शायद पहुँच रही होगी जिसकी करुण पुकार।
6 टिप्पणियां:
बेहतर...
कई आयामों को छूती हुई कविता...
बहुत बढ़िया रचना!!
ग्लोबल वार्मिंग के प्रति सचेत करती सुन्दर रचना के लिए साधुवाद!
आइए, यह भी याद करें
यह वही हिमालय है - वही नगाधिराज
हमारी लालसाओं की धधकती भठ्ठी की आँच से
पिघल रही है जिसकी धवल देह
और कोपेनहेगेन के सम्म्लेन द्वार तक
शायद पहुँच रही होगी जिसकी करुण पुकार।
वाह बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है मानव खुद ही अपनी जडें काट रहा है अगर अभी भी न संभला तो शायद प्रलय ही उसे सबक सिखायेगी। धन्यवाद्
कोपेनहेगेन =कागजी सम्मलेन
उन्हें भला हमारे हिमालय की चिंता क्यों ?
लेकिन इस कविता को पढ़कर मुझे बचपन का पढ़ा हुआ गीत याद आ गया---
चमक रहा उत्तुंग हिमालय ,यह नगराज हमारा ही है
जोड़ नहीं धरती पर जिसका, वह नगराज हमारा ही है .......
ek
yaad rakhne yogya
rachnaa ..
badhaaee .
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