शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

काल का गवैया गाए जा रहा है राग भोपाल


घर में अंग्रेजी का अखबार देर से आता है - दिन में ११ बजे के आसपास , सो उसे रात को ही बाँचता हूँ फुरसत से। कल रात में अखबार पढ़ते हुए देखा कि पूरा एक पेज भोपाल गैस कांड / गैस त्रासदी पर है मय तस्वीरों के। बहुत देर तक मन में उथल - पुथल होती रही और आधी रात गए कुछ यूँ ही लिख लिया गया। आप चाहें तो इसे कविता भी कह सकते हैं :

राग भोपाल

चौथाई सदी से
बज रहा है यह
ध्वनि के सहयात्री हैं -
धूल - धक्कड़
धुआँ
आँसू
आग।

चौथाई सदी से
साल दर साल
तस्वीरें
लेख
कविता
फ़िल्म
सभा - संगत
और भी बहुत कुछ।

चौथाई सदी से
हम गिन रहे हैं दिन महीने साल
घिसने लग गए हैं उंगलियों के पोर
हलक में बार -बार उतरता है पिघला क्रंदन
नथुनों से गई नहीं है अभी मृत्यु -गंध।

जिजीविषा
चौथाई सदी से डाले जा रही है
जीवन की अंगीठी में कोयले काले - काले
और उभर रही है उजली आग
सुनो!
अगर सुन सको तो
सुनो !
अगर कान के परदे अब भी टँगे हैं सही जगह तो
काल का गवैया
गाए जा रहा है राग भोपाल
और हमारी मुंडियों को हिलते हो गए हैं पच्चीस साल।

7 टिप्‍पणियां:

सागर ने कहा…

अरे वाह ! यह तो आपने बहुत अच्छा लिखा है... बात करनी छोड़ी तभी अंदेशा हुआ था की कवि किसी रचना कर्म में व्यस्त है

चौथाई सदी से
हम गिन रहे हैं दिन महीने साल
घिसने लग गए हैं उंगलियों के पोर
हलक में बार -बार उतरता है पिघला क्रंदन
नथुनों से गई नहीं है अभी मृत्यु -गंध।

और हमारी मुंडियों को हिलते हो गए हैं पच्चीस साल।

यह तो बहुत ही सुन्दर है (कविता के लिहाज से) वैसे बात और घटना तो बहुत ही दुखद है...

अनिल कान्त ने कहा…

कविता के माध्यम से आपने जागरूक बातें कहीं हैं, लेकिन आँखें कमजोर हो चली हैं और कानों को उँचा सुनाई देने लगा है. ये तो सुनते हैं और देखते हैं टीवी पर स्वयंवर, हार-जीत का फ़ैसला और पाचन शक्ति के लिए गुदगुदाने वाले दृश्य

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुनो !
अगर कान परदे अब भी टँगे हैं सही जगह तो
काल का गवैया
गाए जा रहा है राग भोपाल
और हमारी मुंडियों को हिलते हो गए हैं पच्चीस साल।

डॉ.साहब!
इस उत्कृष्ट रचना के बारे में कुछ कहना तो मेरी अज्ञानता ही उजागर करेगा!
लेकिन इतना तो अवश्य ही लिखना पड़ेगा कि यह
नवगीत भोपाल गैस त्रासदी पर लिखा गया सुन्दरतम गीत है!

Meenu Khare ने कहा…

अगर सुन सको तो
सुनो !
अगर कान के परदे अब भी टँगे हैं सही जगह तो
काल का गवैया
गाए जा रहा है राग भोपाल
और हमारी मुंडियों को हिलते हो गए हैं पच्चीस साल।


बहुत ही सशक्त रचना.राग भोपाल कितना शांत राग है जो हमारे मन मस्तिष्क पर कुछ कर पाने की प्रेरणा ही नही डाल पाया...हम गूँगे बहरे लोग सिर्फ मुण्डी हिलाना ही जानते हैं.

अमित ने कहा…

इसे अमूमन हम भोपाल गैस त्रासदी कह देते हैं एक ऐसी त्रासदी जिसमे चौथाई सदी गुजर जाने के बाद भी बहुत टीस बाकी है ..चाहे वो सरकारी तंत्र की उपेछा से उपजती हो या फिर सभ्य समाज (??) के गैर जिम्मेदाराना रवैय्ये से !
दर्द को बखूबी उभारा है आपने , अच्छी कविता !!

सुशील छौक्कर ने कहा…

सच कह दिया जी आपने। एक अच्छी रचना के जरिए। कभी कभी सोचता हूँ कि हम इतने गैर जिम्मेदार क्यों होता जा रहे? किसी के दर्द से हमें दर्द क्यूँ नही होता?

Urmi ने कहा…

बहुत ही बढ़िया और शानदार लिखा है आपने! सच्चाई को आपने बखूबी प्रस्तुत किया है! आजकल देखा जाए तो लोग बहुत स्वार्थी हो गए हैं! न तो किसीकी मदद करते हैं और न किसीके दुःख को देखकर दुखित होते हैं! ज़माना जैसे बदल सा गया है!