इस बीच पुराने कागज -पत्तर और फाइलों की छँटाई करने के क्रम में कई बार पुरानी डायरी और अपनी कई - कई पुरानी कविताओं से सुदीर्घ साक्षात्कार उपलब्ध हुआ है। यह एक तरह से पुराने दिनों के भीतर के तहखाने में उतरने की एक सीढ़ी की शक्ल में सामने आया है। तब की अपनी दुनिया और दुनिया के बारे में तब की अपनी सोच और उसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति की निशानदेही की जाँच - परख का अपना ही आनंद है इस बहाने। इसमें कुछ कविताओं को साझा कर चुका हूँ। आज के दिन जिस कविता को साझा करना चाह रहा हूँ वह डायरी में 'मिट्टी का सूरज' शीर्षक से संग्रहीत है लेकिन वह 'पहल' पत्रिका के अंक - ३१ में 'प्रतीक्षा' शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। आइए इसे देखें - पढें...
(पेंटिंग The Sower: वॉन गॉग)
प्रतीक्षाधूप के अक्षर
अँधेरी रात की काली स्लेट पर
आसानी से लिखे जा सकते हैं
कोई जरूरी नहीं कि तुम्हारे हाथों में
चन्द्रमा की चॉक हो।
इसके लिए मिट्टी ही काफी है
वही मिट्टी
जो तुम्हारे चेहरे पर चिपकी है
तुम्हारे कपड़ों पर धूल की शक्ल में जिन्दा है
तुम्हारी सुन्दर जिल्द वाली किताबों में
धीरे - धीरे भर रही है।
तुम सूरज के पुजारी हो न?
तो सुनो
यह मिट्टी यूँ ही जमने दो परत - दर पर॥
7 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया!
मंगलकामनाएँ!
अंधेरे आसमान पर चाँद स्वयं ही चमकता रहे, यह क्या कम है।
Bahut sundar!
सुन्दर विम्ब प्रयोग रचना की विशेषता है!
सही है। सूरज श्रम के कोख से ही तो जन्म लेता है।
देख लेना
किसी दिन कोई सूरज
यहीं से ,बिल्कुल यहीं से
उगता हुआ दिखाई देगा
और मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं होगा।
वाह!
सुन्दर संगीतमय रचना
एक टिप्पणी भेजें