हालीना पोस्वियातोव्सका (१९३४-१९६७) की कवितायें पढ़ते समय हम इस बात से सजग रहते हैं कि पोलिश कविता की समृद्ध और गौरवमयी परम्परा में वह एक महत्वपूर्ण व बेहद जरूरी कड़ी हैं । मेरे द्वारा किए गए ( किए जा रहे) उनकी बहुत - सी कविताओं के अनुवाद आप यहाँ इस ठिकाने 'कर्मनाशा' पर , हमारे सामूहिक ब्लॉग 'कबाड़ख़ाना' पर तथा 'शब्द योग' , 'अक्षर' व कुछ अन्य पत्र - पत्रिकाओं में पढ़ चुके हैं। संतोष है कि विश्व कविता से प्रेम रखने वाली हिन्दी बिरादरी में इन्हें पसन्द किया गया है। आभार। इसी क्रम में आज प्रस्तुत है एक उनकी एक और कविता :
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
मैंने प्रेम के वृक्ष से तोड़ ली एक टहनी
और उसको
दबा दिया मिट्टी की तह में
देखो तो
किस कदर खिल उठा है मेरा उपवन।
संभव नहीं
कि कर दी जाय प्रेम की हत्या
किसी भी तरह।
यदि तुम उसे दफ़्न कर दो धरती में
तो वह उग आएगा दोबारा
यदि तुम उसे उछाल दो हवा में
तो पंख बन जायेंगे उसके पल्लव
यदि तुम उसे गर्त कर दो पानी में
तो वह तैरेगा बेखौफ़ मछली की तरह
और यदि ज़ज्ब दो उसे रात में
तो और निखर आएगी उसकी कान्ति।
इसलिए
मैंने चाहा कि प्रेम को दफ़्न कर दूँ अपने हृदय में
लेकिन मेरा हृदय बन गया प्रेम का वास- स्थान
मेरे हृदय ने खोले अपने हृदय - द्वार
इसकी हृदय - भित्तियों को भर दिया गीत - संगीत से
और मेरा हृदय नृत्य करने लगा पंजों के बल।
इसलिए
मैंने प्रेम को दफ़्न कर लिया अपने मस्तिष्क में
किन्तु लोग पूछने लगे
कि क्यों मेरा ललाट हो गया है फूल की मानिन्द
कि क्यों मेरी आँखें चमकने लगी हैं सितारों की तरह
और क्यों मेरे होंठ हो गए हैं
सुबह की लालिमा से भी अधिकाधिक सुर्ख।
मैंने आत्मसात कार लिया प्रेम को
और सहेज लिया इसे सहज ही
किन्तु इसके आस्वाद के लिए मैं हूँ अवश
लोग पूछते हैं कि क्यों मेरे हाथ बंधनयुक्त हैं प्रेम से
और क्यों मैं हूँ उसकी परिधि में पराधीन।
5 टिप्पणियां:
प्रेम छिपाये रखने के और भी प्रभाव पड़ते हैं शरीर पर।
आस्वाद के लिए मै हूँ अवश...
आह! प्रेम की परिधि में पराधीन प्रेमी!!
प्रेम को आत्मसात करने के बाद भी न चख पाने की पीड़ा।
..आभार।
बहुत अच्छी कविता और जीवंत अनुवाद..!
अनुभूतियों का विषद चित्रण!
सुन्दर अनुवाद!
अनुवाद इतना अच्छा है तो मूल कविता तो और भी अच्छी होगी!
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