आज जिस कविता को 'कर्मनाशा' के पाठकों व प्रेमियों के साथा साझा करने का मन है उसका पहला ड्राफ़्ट मई २०१० के आखिरी सप्ताह में हिमाचल यात्रा के दौरान केलंग में यूँ ही लिखा गया था। केलंग लाहुल-स्पिति जिले का मुख्यालय है जहाँ कवि अजेय रहते हैं। होटल चन्द्रभागा के जिस कमरे में मैं लाहुली साहित्य - संस्कृति के 'इनसाइक्लोपीडिया' तोबदन जी के साथ ठहरा था उसकी खिड़की से बुद्ध की एक प्रतिमा दिखाई देती थी । नीचे लगा चित्र वही है मेरे मोबाइल फोन से खींचा हुआ। लगभग सप्ताह भर के हमारे प्रवास में बर्फ़बारी और बारिश में भीगते बुद्ध से रोज कई - कई बार साक्षात्कार होता रहा । सामने की पहाड़ी पर गोंपा दीखता था और नीचे केलंग । किसी दिन , शायद बुद्ध पूर्णिमा के दिन , सुबह - सुबह घर की याद करते हुए इसको लिखा था। अभी इधर एकाध महीने से डायरियों, फाइलों, नोटबुक्स और छुट्टा कागजों पर लिखी- बिखरी कविताओं को समेटने में लगा हूँ तो इसको एक बार री- राइट किया है। अब यह कविता जैसी भी है ,आइए इसे देखते - पढ़ते हैं :
बारिश में बुद्ध
हिमशिखरों से कुछ नीचे
और उर्वर सतह से थोड़ा ऊपर
अकेले विराज रहे हैं बुद्ध।
उधर दूसरी पहाड़ी ढलान पर
दूर दिखाई दे रहा है गोंपा
किन्तु उतना दूर नहीं
कि जितनी दूर से आ रही है बारिश
अपनी पूरी आहट और आवाज के साथ।
जहाँ से
जिस लोक से आ रही है बारिश
वहाँ भी तो अक्सर आते जाते होंगे बुद्ध
परखते होंगे प्रकृति का रसायन
या मनुष्य देहों की आँच से निर्मित
इन्द्रधनुष में
खोजते होंगे अपने मन का रंग।
कमरे की खिड़की से
दिखाई दे रहे हैं आर्द्र होते बुद्ध
उनके पार्श्व से बह रही है करुणा की विरल धार।
मैं गिनता हूँ उंगलियों पर बीतते जाते दिन
आती हुई रातें
और सपना होता एक संसार।
यहाँ भी हैं वहीं बुद्ध
जिन्हें देखा था सारनाथ- काशी में
या चौखाम - तेजू - इम्फाल में।
वही बुद्ध
जिन्हें छुटपन से देखता आया हूँ
इतिहास की वजनी किताबों में
कविता में
सिनेमा के पर्दे पर
संग्रहालयों के गलियारे में
सजावटी सामान की दुकानों पर
पर उन्हें देखने से बचता रह स्वयं के भीतर
हर जगह - हर बार।
यह चन्द्रभागा है
नदी के नाम का एक होटल आरामदेह
केलंग की आबादी से तनिक विलग एक और केलंग
जैसे देह से विलग कोई दूसरी देह
काठ और कंक्रीट का एक किलानुमा निर्माण
कुछ दिन का मेरा अपना अस्थायी आवास
फिर प्रयाण
फिर प्रस्थान
फिर निष्क्रमण
जग के बारे में भी
ऐसा ही कहते पाए जाते हैं मुखर गुणीजन
और इस प्रक्रिया में बार - बार उद्धृत किए जाते हैं बुद्ध।
बुद्ध बहुत मूल्यवान हैं हमारे लिए
उनके होने से होता है सबकुछ
उनके होने से कुछ भी नहीं रह जाता है सबकुछ।
टटोलता हूँ अपना समान
काले रंग की छतरी बैग में है अब भी विद्यमान
चलूँ तान दूँ उनके शीश पर
बारिश में भीग रहे हैं बुद्ध
और उनके पार्श्व से बह रही है करुणा की विरल धार
मैं इसी संसार में हूँ
और सपना होता जा रहा है संसार।
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10 टिप्पणियां:
बुद्ध शान्ति की खोज में अकेले पड़ गये हैं।
आपकी यह रचना मात्र कविता जैसी भी...
बल्कि सुन्दर कविता ही है!
शेअर करने के लिए आभार!
सुन्दर पंक्तियाँ
भीग रहे बुद्ध के शीश पर छाता तान देने की संवेदनशीलता कविता की आत्मा है!
Waah!
शांति के प्रयास में किसी एक को अकेला चलना पड़ता है , अकेला होना पड़ता है ...कारवां साथ चलते हैं , बिखरते हैं !
बुद्ध सी शान्ति प्रेषित कर रही है आपकी रचना ...
बहुत सुंदर—बुद्ध के मध्य-मार्ग के सिद्धांत को उजागर करती रचना.
बुद्ध को भीगने ही दें।
बहुत ही सुन्दर!
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