प्रोफेसर शिवदासन से मैं कभी नहीं मिला और अब मिल भी नहीं पाऊँगा क्योंकि वे इस इस नश्वर संसार को छोड़कर अनश्वरता में विलीन हो गए हैं। उनके बारे में इतना सुना / पढ़ा है कि बिना मिले / बिना देखे उनसे 'मिलना' हो चुका है। इस बार कोशिश थी सर्दियों में जब केरल जाना होगा तो उनसे साक्षात मिलना हो सकेगा किन्तु आज २६ सितम्बर २०१० को सामाजिक परम्परा के अनुसार देहावसान के 41वें दिन, आज दिनांक 26 सितम्बर, ‘10 को स्वर्गीय शिवदासन के केरल स्थित निवास स्थल पर शोक-सभा आयोजित है। खबर है कि आज के दिन स्थानीय समाचार पत्रों में उनके बाबत काफी कुछ छपा है और उनके सहयोगियों / सहकर्मियों ने उन्हें , उनके काम को , उनकी मनुष्यता को सच्चे दिल से स्वीकार किया है। यह भी खबर है कि यह सब रस्मी और औपचारिक नहीं है अपितु एक आत्मीय की स्मृति का सहज प्रकटीकरण है। आज की दुनिया में यह सब विरल और अश्चर्य जैसा लगता है।
कौन थे प्रोफेसर शिवदासन ? क्या वे बहुत बड़े आदमी थे ? उनकी कीर्ति - कथा के वाचकों और चुपचाप स्वगत बाँचने वालों के उद्गार देख - पढ़ - सुनकर तो लगता है कि अंग्रेजी भाषा और साहित्य का यह विद्वान अध्यापक समकालीन प्रचलित मुहावरे में 'बहुत बड़ा आदमी' भले ही न रहा हो किन्तु सचमुच में एक 'आदमी' जरूर था - बड़प्पन से से भरा और आदमीयत की वास्तविकता से दीप्त।
प्रोफेसर शिवदासन से मैं कभी नहीं मिला और अब मिल भी नहीं पाऊँगा फिर यह सब क्यों और किस आधार पर लिख रहा हूँ ? मेरे पास आधार है। उनके एक निकट सहयोगी / सहकर्मी / साथी का आलेख (अब तो लौट आओ यायावर ! ) जो मेल से मिला है। शिवाजी कुशवाहा राज्य शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद रायपुर (छत्तीसगढ) में अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं। इससे पूर्व वह शासकीय शिक्षा महाविद्यालय, बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ ) और शिक्षक-प्रशिक्षक के रूप में क्षेत्रीय आंग्ल संस्थान, दक्षिण भारत ( बंगलूरू ) में भी काम कर चुके हैं। आज 'चालीसवाँ' के दिन उन्होंने मूल अंग्रेजी में लिखे और हिन्दी में स्वयं पुनर्सृजित अपने आलेख में प्रोफेसर शिवदासन को जिस आत्मीयता से याद किया है और अपने अंतस में उपजती रिक्तता को शब्द दिए हैं उसे पढ़कर / महसूस कर रश्क होता है कि उनके साथ (उनके अधीन नहीं) काम कर चुके लोग उम्हें कितना चाहते रहे होंगें / रहे हैं। विश्व - रंगमंच से प्रस्थान के बाद मंच पर, प्रेक्षागृह में और नेपथ्य में गूँजती - अनुगूँज करती इस 'धुन' को 'सुनते' हुए यही लगता है कि एक इंसान, एक अध्यापक और एक सहकर्मी की 'कीर्ति - कथा' के श्रवण का पुण्य लाभ हम भी करें साथ ही यह भी कि यदि हम प्रोफेसर शिवदासन जैसा न भी बन सकें तो कम से कम हमें उनके जैसा एक साथी जरूर मिले ताकि 'पनघट की कठिन डगर' पर चलना ठीकठाक हो सके ! तो लीजिए प्रस्तुत है शिवाजी कुशवाहा का यह आलेख या स्मृति लेखा :
अब तो लौट आओ, यायावर!
( प्रोफेसर शिवदासन को याद करते हुए शिवाजी कुशवाहा )
यादों की शक्ल में पिछली बातें कुछ परेशां कर रही है । स्मृति यात्रा की इजाज़त देंगे आप?
अगस्त 27, 2004. शिक्षक-प्रशिक्षक के रूप में क्षेत्रीय आंग्ल संस्थान, दक्षिण भारत, में कार्य करते मुझे जुम्मा-जुम्मा सात दिन ही हुए थे । लम्बे गलियारे में तेज़ कदम भरता हुआ मैं क्लास में जा रहा था कि सामने एक सज्जन पर दृष्टि पड़ी जो अपनी डायरी के पन्ने पलटते अन्यमनस्क से चल रहे थे । अचानक हवा का एक झोंका आया और कुछ क़ागज़ी टुकड़े हवा में तैरने लगे । हड़बड़ाये से उन सज्जन ने सभी टुकड़ों को समेटा और स्वयं को सामान्य करने का असफल प्रयास कर, खिसियानी हँसी के साथ बोले ‘‘दरअसल.... मैं......... मुझे...... ये वे ट्रेन-टिकट हैं जिनका प्रयोग मुझे आने वाले पन्द्रह दिनों में करना है ।‘‘ कुल आठ टिकटें! मैंने उस व्यक्ति को गौर से देखा - साठ से अधिक बसन्त देखा हुआ दुबला पतला, सामान्य कद का व्यक्ति, चेहरे पर ऐसी स्थायी स्मित जो मुर्दों में जान फूँक दे । उनके व्यक्तित्व की सबसे अनोखी बात थी उनके केश का उनकी ऑंखों के साथ बिल्कुल ही तारतम्य न बैठना । सन की तरह धवल केश उनके उम्र की चुगली कर रहे थे, किन्तु आंखों में ऐसी दपदपायी चमक जो आज के किशोरों में भी शायद ही देखने को मिले । स्वाभाविक ही था कि इस व्यक्ति में मेरी रुचि बढे़ ।
‘‘अच्छा, तो ये हैं डॉ. शिवदासन! मलयालम साहित्य प्रेमियों को स्टाइलिस्टिक्स से परिचित कराने वाले अंग्रेजी के भाषाविद!!‘‘ यदि मुझ जैसे अन्तर्मुखी को उनसे नज़दीकी रिश्ता बनाने में ख़ास वक्त नहीं लगा तो श्रेय जाता है उनकी उदात्त प्रवृत्ति और सहजता को । ओह! सहज होना भी कितना कठिन है !
उनसे सम्बन्धित जो बात मुझे हमेशा परेशान करती रही है, वह है उनका अजीब सा संतुलन-कौशल । समझ में नहीं आता कि एक ओर गम्भीर अध्ययन और दूसरी ओर अनवरत यात्राएं । कैसे संतुलन करते हैं लोग इनके मध्य? शिक्षक-प्रशिक्षण या सम्मेलन के सिलसिले में जब दूरदराज़ जाने की बात आती तो संस्थान के सभी लोग एक सुर में ‘नहीं‘ कह देते । ऐसे अवसरों पर एक ही व्यक्ति संस्थान का प्रतिनिधित्व करता, वे हैं डॉ. शिवदासन - लम्बी यात्राओं या उन स्थानों की असुविधाओं से पूर्णरूपेण परिचित होने के बावजूद । घुमक्कड़ी की दुनिया का सरताज मानता आया था मैं स्वयं को, किन्तु उनसे परिचय प्राप्त करने के बाद अपनी पराजय सहर्ष स्वीकार करने के अलावा चारा ही क्या था? ख़ैर, हम दोनों ने, साथ-साथ - कभी शिक्षक- प्रशिक्षण तो कभी भाषा-सम्मेलन तो कभी यूँ ही - ढेर सारी यात्राएं की, देश के कोने-कोने में । इन यात्राओं की सबसे अविस्मरणीय बात यह रही कि उस दौरान शायद ही कोई लम्हा बीता हो जो उनसे अंग्रेजी व मलयालम साहित्य, भाषा-शिक्षण, और सबसे बढ़कर मानवीयता का पाठ न मिला हो । ज्ञान के विपुल भंडार एवं यायावर प्रवृत्ति के मध्य समानुपातिक सम्बन्ध के प्रति मेरा विश्वास बढ़ा है उनसे मिलने के बाद । इस उक्ति को अक्षरश: जिया है उन्होने ‘यह संसार एक पुस्तक है और हर व्यक्ति उस पुस्तक का पृष्ठ!‘नये लोगों से मिलने और नयी जगहों को देखने की ललक ने उन्हे नियमित कक्षाओं या एजूसेट द्वारा प्रसारित शैक्षिक कार्यक्रमों का ऐसा नायक बना दिया जिसकी मांग सजीव उदाहरणों एवं उद्धरणों के कारण सबसे अधिक रहती है ।
हाल-फिलहाल ही कहीं पढ़ा है मैंने, ‘यदि किसी की मानवीयता की परख करनी है तो उसका उन लोगों के प्रति व्यवहार देखें जिनसे उसे कोई आर्थिक या भावनात्मक लाभ न मिले । ‘ मानवीयता की इस कसौटी पर डॉ. शिवदासन बिल्कुल खरे उतरते हैं । उनके साथ (उनके अधीन नहीं) कार्य किये हुए किसी भी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से उनकी चर्चा भर कर के देखें, तारीफ़ों का सैलाब मिलेगा डॉ. शिवदासन के प्रति । कैसे भूल सकता हूँ वे रातें जब हितेष, अदिति और मैं देर रात - किसी शिक्षक-प्रशिक्षण के उपरान्त - हॉस्टल पहुँचते भूखे, थके-मांदे और हम पाते डॉ. शिवदासन को हमारे लिए विशेष रूप से स्वयं द्वारा तैयार की गयी आलू की स्वादिष्ट सब्जी और केरल के उसना चावल के भात के साथ, और साथ ही थकान दूर करने वाली उनकी चिर-परिचित मुस्कान!
पिछले 16 अगस्त को डॉ. शिवदासन, अपनी आदत के अनुसार हमेशा की तरह - फ़िर यात्रा पर निकल पड़े । परन्तु इस बार अनोखी बात यह हुई कि इतने दिनों बाद भी वे वापस नहीं लौटे हैं, और न ही कोई फ़ोन, न ई-मेल ! 41 दिन! हद है डॉ. शिवदासन! हम सभी आंखें बिछाए आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं और आप हैं कि......।
अब लौट भी आओ, यायावर!!
4 टिप्पणियां:
महान दिवंगत को श्रद्धांजलि।
अब नहीं लौटेंगे यायावर. हमारी श्रद्धांजलि.
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बहुत आत्मीयता से याद किया है कुशवाहा जी ने
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