विश्व कविता के प्रेमियों के लिए फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश ( १३ मार्च १९४१ - ०९ अगस्त २००८ ) कोई अपरिचित - अनचीन्हा नाम नहीं है। हिन्दी पढ़ने - पढ़ाने वालों की दुनिया में उन्हें खूब अनूदित किया गया है और खूब पढ़ा गया है / खूब पढ़ा जाता रहेगा। नेरुदा, लोर्का , नाजिम हिकमत की तरह उन्हें चाहने वालों की कतार कभी छोटी नहीं होगी। आइए आज देखते - पढ़ते हैं उनकी एक प्रसिद्ध कविता : 'दूसरों के बारे में सोचो'।
महमूद दरवेश की कविता
दूसरों के बारे में सोचो
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
जब तुम तैयार कर रहे होते हो अपना नाश्ता
दूसरों के बारे में सोचो
( भूल मत जाना कबूतरों को दाने डालना )
जब तुम लड़ रहे होते हो अपने युद्ध
दूसरों के बारे में सोचो
( मत भूलो उनके बारे में जो चाहते हैं शान्ति )
जब तुम चुकता कर रहे होते हो पानी का बिल
दूसरों के बारे में सोचो
( उनके बारे में जो टकटकी लगाए ताक रहे हैं मेघों को )
जब तुम जा रहे होते हो अपने घर की तरफ
दूसरों के बारे में सोचो
(उन्हें मत भूल जाओ जो तंबुओं - छोलदारियों में कर रहे हैं निवास)
जब तुम सोते समय गिन रहे होते हो ग्रह - नक्षत्र - तारकदल
दूसरों के बारे में सोचो
( यहाँ वे भी हैं जिनके पास नहीं है सिर छिपाने की जगह )
जब तुम रूपकों से स्वयं को कर रहे होते हो विमुक्त
दूसरों के बारे में सोचो
( उनके बारे में जिनसे छीन लिया गया है बोलने का अधिकार )
जब तुम सोच रहे हो दूरस्थ दूसरों के बारे में
अपने बारे में सोचो
( कहो : मेरी ख्वाहिश है कि मैं हो जाता अँधेरे में एक कंदील)
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( चित्र : 'मेक सम नाएज' / गूगल सर्च से साभार )
4 टिप्पणियां:
सारी पंक्तिया पढने के बाद आखिर की ये पंक्तिया अपना वजूद अपने माने अलग ही रखती है .........
जब तुम सोच रहे हो दूरस्थ दूसरों के बारे में
अपने बारे में सोचो
( कहो : मेरी ख्वाहिश है कि मैं हो जाता अँधेरे में एक कंदील)
बड़े ही सुन्दर भावों को सुगढ़ता से पिरोया है।
एक अच्छी सी कविता पढवाने के लिए आभार अनुवाद ने कविता में और रस भर दिया है
सोचने लायक बातें हैं इस कविता में।
घुघूती बासूती
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