मंगलवार, 10 अगस्त 2010

मुझे तलाश थी एक स्त्री की जो मुझे दु:खी कर सके


* सीरियाई कवि निज़ार क़ब्बानी की बहुत - सी कविताओं के मेरे द्वारा किए गए अनुवाद आप यहाँ 'कर्मनाशा' पर और 'कबाड़खा़ना'  'अनुनाद'  तथा 'सबद' पर पढ़ कई बार पढ़  चुके हैं। निज़ार की कुछ कवितायें  'दैनिक भास्कर' के रविवासरीय परिशिष्ट में भी छपी हैं। जहाँ तक मेरी जानकारी है कि आज से कई बरस पहले हिन्दी में पहली बार  बनारस के प्रो० रामकीर्ति शुक्ल ने निज़ार क़ब्बानी को हिन्दी में इंट्रोड्यूस किया था और बाद में एकाध चित्रकारों ने उनकी कविताओं पर आधारित पोस्टर्स बनाए थे। अब  निज़ार प्रमुखता से  हिन्दी में आ रहे हैं और खुशी है कि उन्हें पसंद किया जा रहा है। एक सामान्य कविता प्रेमी और अनुवादक के रूप में यह देखना - सुनना मुझे अच्छा लग रहा है और लग रहा है कि अपनी मेहनत कुछ हद तक सफल रही। अनुवाद का यह क्रम जारी है। इधर अभी बिल्कुल अभी 'पक्षधर' ( संपादक : विनोद तिवारी )  पत्रिका का नया अंक ( वर्ष -०४ / अंक -०९ ) आया है जिसमें मेरे द्वारा अनूदित निज़ार कब्ब्बानी की दस प्रेम कवितायें प्रकाशित हुई है। संपादक के प्रति आभार सहित हिन्दी की पढ़ने - पढ़ाने वाली बिरादरी और विश्व कविता प्रेमियों के साथ इस सूचना को शेयर करना मैं जरूरी समझता हूँ। यदि मन करे , समय हो तो तो 'पक्षधर' के नए अंक पर निगाह डाली जा सकती है। आज प्रस्तुत है निज़ार क़ब्बानी की दस प्रेम कविताओं में से एक कविता :


निज़ार क़ब्बानी की कविता
उदासी का महाकाव्य
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है दु:खी होना
दु:ख - जिसकी मुझे तलाश थी सदियों से ।
मुझे तलाश थी
एक स्त्री की जो मुझे दु:खी कर सके
जिसके बाहुपाश में
मैं एक गौरये -सा दुबक कर रोता रहूँ
मुझे तलाश थी एक स्त्री की
जो मेरी चिंदियों को बीन सके
वो जो बिखरी हैं टूटे क्रिस्टल के टुकड़ों की तरह

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दी हैं मुझे बुरी आदतें
मसलन इसने मुझे काफ़ी के कपों को
पढ़ना सिखला दिया है एक ही रात में हजारों - हजार बार
इसने मुझे सिखला दिए हैं कीमियागीरी के प्रयोगात्मक कार्य
इसी के कारण मैं अक्सर दौड़ लगाने लगा हूँ
भविष्य बाँचने वालों के ठौर- ठिकानों की ओर ।

इसने मुझे सिखला दिया है घर छोड़ भटकना
सड़क की पटरियों पर गहन आवारागर्दी करना
और बारिश की बूँदों
तथा कार की लाइट्स में
तुम्हारे चेहरे की तलाश का उपक्रम करना ।
अजनबियों के परिधानों में तुम्हारे पहनावे की पहचान करना
और यहाँ तक कि..
यहाँ तक कि...
विज्ञापन के पोस्टरों में भी तुम्हारी छवि की एक झलक -सी पा जाना ।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है
यूँ ही भटकना बेमकसद - बेपरवाह
घंटों तक डोलना एक ऐसी बंजारन की खोज में
जो सौतिया डाह से भर देगी पूरी बंजारा औरत बिरादरी को
चेहरों और आवाजों के रेवड़ में
मैं कब से तलाशे जा रहा हूँ
एक चेहरा ..
एक आवाज.. ।

मेरे भीतर धँस गया है तुम्हारा प्रेम
उदासी के नगर में
मैं पहले कभी दाखिल नही हुआ हूँ अकेले
मुझे पता नहीं , फिर भी
अगर आँसू होते होंगे इंसान
तो उदासी के बिना
वे साधारण इंसानों की छाया मात्र होते होंगे ..शायद..।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है
एक बच्चे की तरह हरकतें करना
चाक से उकेरना तुम्हारा चेहरा -
दीवार पर
मछुआरों की नावों पर
चर्च की घंटियों पर
और न जाने कहाँ - कहाँ..
तुम्हारे प्रेम ने सिखला है
कि किस तरह प्रेम से बदला जा सकता है
समय का मानचित्र.... ।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है
कि जब मैं प्रेम करता हूँ
थम जाती है पृथ्वी की परिक्रमा|.
तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया दिया है
हर चीज को विस्तार और विवरणों के साथ देखना
अब मैं पढ़ता हूँ बच्चों के लिए लिखी गईं
परियों की कथाओं वाली किताबें
और दाखिल हो जाता हूँ जेन्नी के राजमहलों में
यह सपना पाले कि सुल्तान की बेटी मुझसे झट शादी कर लेगी
आह..वो आँखें....
लैगून के पानी से भी ज्यादा शफ़्फ़ाक और पानीदार
आह ..वो होंठ..
अनार के फूल से भी ज्यादा मादक और सम्मोहन से लबरेज..
मैं सपने देखता हूँ कि एक योद्धा की तरह
उसका हरण कर लाऊँगा
सपने में यह भी देखता हूँ कि उसके गले में पहना रहा हूँ
मूँगों और मोतियों का हार।
तुम्हारे प्रेम ने मुझे सिखला दिया है पागलपन
हाँ, इसी ने सिखला दिया है कि कैसे गुजार देना है जीवन
सुल्तान की बेटी के आगमन की प्रतीक्षा में।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है
कि कैसे प्रेम करना है सब चीजों से
कि कैसे प्रेम को खोजना है सब चीजों में
जाड़े -पाले में ठिठुरते एक नग्न गाछ में
सूखी पीली पड़ गई पत्तियों में
बारिश में
अंधड़ में
उतरती हुई शाम के सानिध्य में
एक छोटे - से कैफे में पी गई
अपनी पसंदीदा काली काफ़ी में।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है...शरण्य
शरण लेना होटलों में
बेनाम - बेपहचान
चर्चों में
बेनाम - बेपहचान
कॊफ़ीहाउसों में
बेनाम - बेपहचान।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है
कि कैसे रात में अजनबियों के बीच
अचानक उपजती उभरती उलाहना देती है उदासी
इसने मुझे सिखला दिया है
बेरुत को एक स्त्री की तरह देखना
एक ऐसी स्त्री
जिसके भीतर भरा है निरंकुश प्रलोभन
एक ऐसी स्त्री
जो हर शाम पहनती है अपनी सबसे खूबसूरत पोशाक
और मछुआरों तथा राजपुत्रों को लुभाने के लिए
उभारों पर उलीचती है बेशकीमती परफ़्यूम।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है रुलाई के बिना रोना
तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है
कि कैसे उदासी को आ जाती है नींद
रोश और हमरा की सड़कों पर
पाँव कटे , एक रोते हुए लड़के की तरह।

तुम्हारे प्रेम ने सिखला दिया है दु:खी होना
दु:ख - जिसकी मुझे तलाश थी सदियों से ।
मुझे तलाश थी
एक स्त्री की जो मुझे दु:खी कर सके
जिसके बाहुपाश में
मैं एक गौरये -सा दुबक कर रोता रहूँ
मुझे तलाश थी एक स्त्री की
जो मेरी चिंदियों को बीन सके
वो जो बिखरी हैं टूटे क्रिस्टल के टुकड़ों की तरह ।

7 टिप्‍पणियां:

पारुल "पुखराज" ने कहा…

भीषण शुन्दर"

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

उम्दा प्रस्तुति

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

parul ki tippani udhar le kar mai bhi han me han milati hun...

abcd ने कहा…

पड कर समझ्ने,मेह्सूस करने से जादा
,अनुभव करने के काबिल /!!

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

kitanii sundar !!!!!!

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा ने कहा…

Thanks for translating this poem...