* आज बहुत दिनों के बाद ब्लाग पर सीधे / आनलाइन कुछ यँ ही लिख - सा दिया है। अब यह कविता है तो ठीक ! नहीं है तो भी ठीक ! क्या करूँ 'कवित विवेक एक नहिं मोरे..' घर से जहाँ तक निगाह जाती है बस धान के हरे भरे खेत..उनके पार जंगल का हरापन और दूर क्षितिज पर झाँकते पहाड़ों का नीलापन । हर ओर रंग ही रंग हैं ..फिर भी ..कभी कबार दबे पाँव दुबक कर चला ही आता है उदासी का एकाध टुकड़ा...।
* अब मैं और क्या कहूँ? आप ही देखें.... अपन तो कंप्यूटर जी को बा - बाय कर चले अपने काम पर...
स्वगत
धूप में खड़ा है धान
हरियाया।
छाँह में छिपता हूँ मैं
घबराया।
खेतों में पसरा है
चहुँओर
काहिया हरापन
और इधर इस ठौर
बस रंगहीन - रसहीन
एक चित्रण
लगता है
अपना ही दु:ख
सर्वाधिक गहराया।
ऊपर सूरज का तेज
नीचे मिट्टी नर्म - नम
फिर भी क्यों चुभते हैं
तलवों में
अनदेखे काँटे हरदम
चलो उदासी को
आज झुठलायें
खिल जाये मन कमल
मुरझाया।
धूप में खड़ा है धान
हरियाया।
छाँह में छिपता हूँ मैं
घबराया।
9 टिप्पणियां:
धूप में खड़ा है धान
हरियाया।
छाँह में छिपता हूँ मैं
घबराया।
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बहुत ही सटीक रहा यह स्वगत गद्यगीत!
हम्म्म्म..भाव तो अच्छे हैं....!
bahut khubsurat bhav
बड़ा ही सरल सा एक भाव पर अभिव्यक्ति की गहराई लिये हुये।
शीर्षक तो धूप में खड़ा धान नहीं पानी में खड़ा धान होता तो धन को बारिश की जरुरत है सर जी, वैसे भाव सचमुच अच्छे हैं.
बौफ्फाइन ऑनलाइन :-) - [ऐसा रेत में भी लगता है पर छुपने को हरियाया नहीं मिलता - डूबने को समंदर ज़रूर! ] - ये साइड की फोटो में तितली के साथ मिर्ची लगी है क्या? - मनीष
बहुत पसन्द आया
हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..
ब्लॉग को पढने और सराह कर उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया.
सुन्दर अभिव्यक्ति|
Feel good poem.
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