ग़ालिब से दोस्ती का सिलसिला किशोरावस्था को पार करते हुए संभवत: इसलिए भी चल निकला था कि उस वक्त तक उम्र व उपलब्धता के हिसाब से जितना भी पढ़ -सुन -देख रखा था उसके आलोक में उनके यहाँ कुछ अपनी-सी भाषा और अपनी-सी कहन जैसी कोई चीज दिखाई देती थी. उन दिनों स्कूलों में 'कवि दरबार' नामक एक प्रतियोगिता होती थी जिसमें विद्यार्थी कास्ट्यूम धारण कर सस्वर कवितायें प्रस्तुत करते थे . हमारे स्कूल में भी यह सब होता था और इस प्रतियोगिता में रा.कॄ.गु.आ.वि.इं.का. दिलदारनगर की पूरे ग़ाजीपुर जिले और बनारस कमिश्नरी की स्कूली प्रतियोगिताओं में धाक थी. कवियों में अक्सर विद्यापति, मीरांबाई ,सूरदास आदि बनाए जाते थे .एक बार जब मैंने डरते-डरते ग़ालिब को इस प्रतियोगिता में शामिल करने की बात की तो सांस्कॄतिक कार्यक्रमों के प्रभारी अध्यापक ने कुछ यूँ घूरा मानो कोई अक्षम्य अपराध हो गया हो जबकि मैंने देख रखा था कि अपने ही कस्बे के दूसरे इंटर कालेज में ग़ालिब जैसे अन्य कवि भी 'कवि दरबार' का हिस्सा बनते थे. तब लोक में ग़ालिब की व्याप्ति और उपस्थिति चमत्कॄत करती थी. अपने आसपास आज भी देखता हूँ कि कविता-शायरी से दूर-दूर तक का रिश्ता न रखने वाले लोगों के लिए भी ग़ालिब कोई अनजाना नाम नहीं है. यह तो बहुत बाद में पता चला कि मेरे जैसे तमाम ऐसे लोगों के लिए जिन्होंने देवनागरी में उर्दू शायरी को पढ़ा है उनके लिए ग़ालिब के शुरुआती दौर की शायरी कुछ-कुछ केशवदास की -सी लगती है लेकिन जैसे-जैसे अर्थ व मायने के दरीचे खुलते जाते हैं वह निरंतर सहल -सरल-संवेदनस्पर्शी होती चली जाती है.
आज ग़ालिब की एक बहुश्रुत व बहुपठित ग़ज़ल प्रस्तुत है. इसके बारे में कुछ न कहा जाना ही बहुत कुछ कहा जाना होगा. तो आइए सुनते हैं अद्भुत आवाज की मलिका आबिदा परवीन के स्वर में - ये न थी हमारी किस्मत ......
ये न थी हमारी किस्मत कि विसाले-यार होता।
अगर और जीते रहते ये ही इंतज़ार होता।
आज ग़ालिब की एक बहुश्रुत व बहुपठित ग़ज़ल प्रस्तुत है. इसके बारे में कुछ न कहा जाना ही बहुत कुछ कहा जाना होगा. तो आइए सुनते हैं अद्भुत आवाज की मलिका आबिदा परवीन के स्वर में - ये न थी हमारी किस्मत ......
ये न थी हमारी किस्मत कि विसाले-यार होता।
अगर और जीते रहते ये ही इंतज़ार होता।
तेरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूठ जाना,
कि खुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता।
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे-नीम कश को,
ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।
रगे संग से टपकता वो लहू कि फ़िर न थमता,
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता।
कहूँ किससे मैं कि क्या है शबे-ग़म बुरी बला है,
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता।
हुए मर के हम जो रुसवा हुए क्यों न गर्के- दरिया,
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मजार होता।
उसे कौन देख सकता कि यगान: है वो यकता,
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता।
ये मसाइले- तस्सवुफ़ ये तेरा बयान ग़ालिब,
तुझे हम वली समझते जो न वादाख़ार होता।
(अगर आपका मन करे तो ग़ालिब पर कुछ और जानने-सुनने हेतु यहाँ और यहाँ भी जाया जा सकता है)
9 टिप्पणियां:
आह्हा हा !!!! आनन्द आ गया-आज मौसम का भी यही तकाजा है.
आभार इस प्रसुति के लिए.
आह्हा हा !!!! आनन्द आ गया-आज मौसम का भी यही तकाजा है.
आभार इस प्रस्तुति के लिए.
waah waah.......
maza aa gaya.
आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार। एक कौतूहल है..क्या आप गाजीपुर या इसी के आस पास के अंचल से आते हैं... क्योंकि आपने दिलदारनगर का नाम लिया है..क्या आप हरिवंश पाठक गुमनाम जी से भी परिचित हैं...अगर ठीक समझें तो इसका जवाब दें...धन्यवाद
जी, शैलेन्द्र जी.अच्छा लगा कि आपने यहाँ का फेरा लगाया.आपको मेल कर रहा हूँ.परिचय आगे बढ़ना चाहिए.
मस्त कित्ता सिद्ध भाई...
.......कहते हैं के ग़ालिब का है अंदाजेबयां और ।
जिन्होंने देवनागरी में उर्दू शायरी को पढ़ा है उनके लिए ग़ालिब के शुरुआती दौर की शायरी कुछ-कुछ केशवदास की -सी लगती है लेकिन जैसे-जैसे अर्थ व मायने के दरीचे खुलते जाते हैं वह निरंतर सहल -सरल-संवेदनस्पर्शी होती चली जाती है,
बिल्कुल सही लिखा हम जैसे लोगों पर एकदम सही उतरता है। हमारी जेनेरेशन में गालिब में और उत्सुक्ता जगाने का श्रेय मैं गुलज़ार , नसीर और जगजीत की जोड़ी को देना चाहूँगा जिन्होंने उनकी जिंदगी और उनकी शायरी को करीब से महसूस करने का अवसर दिया।
बहुत ख़ूब, हम तो दीवाने हैं ग़ालिब की शाइरी के
---मेरा पृष्ठ
चाँद, बादल और शाम
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