गुरुवार, 30 जनवरी 2014

यह मैं हूँ कागज के खेत में

'रंग' सीरीज की अपनी कुछ कविताओं में से  एक  कविता आप  इसी ठिकाने पर पहले पढ़ चुके हैं। लीजिए आज प्रस्तुत है एक और कविता :


कुछ और रंग

एक कैनवस है यह
एक चौखुटा आकार
क्षितिज की छतरी
मानो आकाश का प्रतिरूप
जिसकी सीमायें बाँधती है हमारी आँख
और मन अहसूस करना चाहता है अंत का अनंत

दिख रहा है
उड़ रहे हैं रंग
उड़ाए जा रहे हैं रंग
फिर भी
घिस रहा है इरेज़र
लकीरें अब भी हैं लकीर

यह मैं हूँ
कागज के खेत में
शब्दों की खुर्पी से निराई करता
भरसक उखाड़ता खरपतवार
और अक्सर
आईने के सामने
समय के रथ  को रोकता - झींकता
अपने बालों में लगाता खिजाब
सफेद को स्याह करता बेझिझक बेलगाम
---


( चित्र :  संजय धवन की पेंटिंग ' फोर सीजन्स  VI' , गूगल छवि से साभार )

4 टिप्‍पणियां:

Pratibha Katiyar ने कहा…

कागज के खेत में
शब्दों की खुर्पी से निराई....Waah!

Unknown ने कहा…

bahut sundar panktiyaan hain...dhanywaad

वाणी गीत ने कहा…

कैनवास है जीवन , कागज के खेत , शब्दों की रोपाई …
सुन्दर रंग एवं बिम्ब !

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

बहुत सुंदर
शब्दो का कैनवेस :)