मंगलवार, 21 मई 2013

समुद्र तट पर देह और आत्मा : एक संवाद

पिछली पोस्ट के क्रम को आगे बढ़ाते हुए विश्व कविता के  उर्वर हिस्से से आज एक बार  फिर पोलिश कवि अन्ना स्विर ( १९०९ - १९८४ ) की  एक और छोटी - सी  यह  कविता......


अन्ना स्विर की कविता

समुद्र तट पर देह और आत्मा : एक संवाद
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

आत्मा समुद्र तट पर
बाँच रही है दर्शनशास्त्र की एक किताब
और पूछती है देह से :
बताओ तो
किसने किया है हमें संग - साथ ?
कहती है देह :
अरे , यह समय है धूप सेंकने का।

आत्मा पूछती है देह से :                                                              
क्या सचमुच
नहीं है मेरा कोई अस्तित्व?
कहती है देह :
देखो , मैं धूप सेंक रही हूँ अपने घुटनों पर।

आत्मा फिर पू्छती है देह से :
बताओ तो
मुझमें और तुममें
कब होगी मरण की शुरुआत ?
देह को आ जाती है हँसी :
शुक्रिया, अब हो गई है काम भर धूप सिंकाई।
---
( चित्र : नवल किशोर की मिक्स्ड मीडिया पेंटिंग , गूगल छवि से साभार)

9 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

गूढ़ प्रश्न, छिटकते उत्तर

vandana gupta ने कहा…

बेहद गहन

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" ने कहा…

सोचता हूँ पहले जवाब सोच लूं फिर दुबारा ब्लॉग पर आऊँगा . अभी समझ नहीं आयी

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बहुत सुंदर गहन प्रस्तुति ,,,

Recent post: जनता सबक सिखायेगी...

देवदत्त प्रसून ने कहा…

इस चर्चा मंच पर आपसे भेंट हेतु माँ सरस्वती- इन सरस्वती-पूजकों का आभार!आप के दार्शनिक रचानानुवाद हेतु आप को वधाई !

रश्मि शर्मा ने कहा…

सुंदर..

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

आत्मा फिर पू्छती है देह से :
बताओ तो
मुझमें और तुममें
कब होगी मरण की शुरुआत ?
देह को आ जाती है हँसी :
शुक्रिया, अब हो गई है काम भर धूप सिंकाई।


एक ऐसा सच जिसे आज तक कोई नहीं जान सकता .....(देह और आत्मा के मरण की शुरुआत...उसी दिन से होती है जब विचारों का द्वन्द शुरू होता है )

Onkar ने कहा…

सुन्दर रचना

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

आत्मा इतनी बेचैन और मन इतना शांत!