अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी के इस ठिकाने पर एक लंबे अंतराल के बाद आज प्रस्तुत हैं सरोज सिंह की पाँच कवितायें। कवि का परिचय नीचे दिया गया है। इन पाँच कविताओं को और उनकी कुछ और कविताओं को पढ़ते हुए आश्वस्ति होती है कि कवि अपने समय व समाज को लेकर सजग है और कवितायें उम्मीद का दामन न छोड़ने की जिद साथ - साथ सतत सक्रिय हस्तक्षेप करती दिखाई देती हैं। आइए , इन्हें , पढ़ते हैं :
पाँच कवितायें : सरोज सिंह
१-उनके माथे का अरक़,ढलता है टकसालों में
बोया गया अनाज
दल्ले उगे
खेत सींचा गया
ख़ुदकुशी उगी
चूल्हे पे रोटी नहीं
अक्सर,उठता रहा धुंआ।
मुफलिसी की बारिश में
सील जाता था ईधन
बच्चों के चेहरों पर
भूख करती थी नर्तन
उनके माथे का अरक़
ढलता रहा टकसालों में
सिक्के तवायफ़ से
नाचते रहे अमीरों के पंडालों में।
वक़्त अब बदल रहा है
उनकी जमीं पर
अब अनाज नहीं
इमारते उगती हैं
उनके हाथों में बीज और खाद नहीं
रेता बजरी के तसले होते हैं।
नहीं बदला कुछ तो वो ये कि
अब भी उनके माथे का अरक़,
ढलता है टकसालों में !
२-हे शब्द शिल्पी !
तुम !
शब्दों के धनी - मनी
शब्द शिल्पी हो !
गढ़ लेते हो
प्रेम की अनुपम कविता
किन्तु भावों के मेघ
मेरे मन में भी
कम नहीं घुमड़ते।
मेरा आतुर उद्दांत हृदय
कसमसाता है
छटपटाता है
प्रेम के उदगार को
किन्तु मेरे निर्धन शब्द
श्रृंगारित नहीं कर पाते
मन के अगाध भावों को
यदा कदा....
दरिद्रता झलक ही जाती है।
हे शब्द शिल्पी !
क्या ही अच्छा होता
शब्दों के साथ साथ
भावों के भाव भी
तुम समझ पाते !
३-झुर्रियों वाले हाथ जब धरोगे मेरे झुर्री वाले हाथ पर
कहते हैं ........
सपने तो सपने ही होते हैं
क्या पता पूरे हो न हों
पर मेरा एक सपना है
जो सच और शीशे की तरह साफ़ है
और वो है तुम्हारा
हर सुबह चाय की प्याली ख़त्म करने के बाद
और रात को सोने से पहले
अपने झुर्रियों वाले हाथ का
मेरे झुर्रियों वाले हाथ पर धरना
और ऐसा करते तुम्हारी नजरें
मेरी नजरों पर नहीं हाथों पर होती हैं
जैसे उस हाथ के स्पर्श से कुछ महसूस करना चाहते हो
या कुछ कहना चाहते हो पर कह नहीं पाते
या वो साथ देना चाहते हो
जो वाजिब वक़्त न देकर बेजा किया।
अक्सर वो आधी रात तक बैठक से ठहाकों का उठना
और मेरा बिस्तर पर खिड़की से आती चांदनी में घुलते रहना
मेरी नींद भी तो तुम्हारी सगी थी
मुझे छोड़ तुम्हारी महफ़िल में कहकहे लगाती
और रात के तीसरे पहर कभी भूले से नींद भी आ जाती
तब तुम्हारा प्यार से उठाकर कहना
यार.जरा दोस्तों के लिए कॉफ़ी बना दो
और उनके सामने छाती चौड़ी कर
उन्हें कॉफ़ी पिलवाना !!
ऊपर वाले की फज़ल से तुम्हारी नौकरी भी एसी कि
आधे से ज्यादा वक़्त बाहर ही रहते
माँ बनने की पहली ख़ुशी
तुम्हारे संग साझा करना चाहती थी
अफ़सोस नहीं कर पाई !
वो हमारी पहली होली
तुम्हे याद है?
कहकर गए अभी सब से मिलकर आता हूँ
और जब आये तब तक खेल ख़त्म हो चुका था।
खैर ....भूलना चाहती हूँ सब कुछ
और अब तुम्हारे हाथों का स्पर्श पाती हूँ तो
कुछ याद भी नहीं रहता...
और धर देतीं हूँ अपना दूसरा हाथ तुम्हारे हाथों पर
तुम भी समझ जाते हो
और अपनी प्रेम से लबरेज़ नजरें
ऊपर कर लेते हो
शायद परिपक्व प्रेम
सिफ मौन समझता है ...
मेरा सब कुछ भूलना
लाज़मी भी है ......क्योंकि ,
तुम्हारा वो प्रेम अंगुलिमाल था
और ये प्रेम वाल्मीकि .....!!!
४-पारा
( आज थर्मामीटर के टूटने पर 'पारे' को छितराते देख कर )
पारा प्रेम का
हाई हो न हो
प्रेम पारे सा होना चाहिए
जो गिरकर टूटता है कई टुकड़ों में
जुड़ने में पल नहीं गंवाता
कोई गांठ भी नहीं होती उस जुडाव में
और ..
उस पारे को
कोई रंगे हाथों
पकड़ भी तो नहीं पाता
तभी कहती हूँ
पारा प्रेम का हाई हो न हो
प्रेम पारे सा होना चाहिए|
५- व्याकरण
मैं
और
तुम
इन सर्वनामों के मध्य
व्याप्त है हमारे अपने विशेषण
जिन्हें हम बदलना नहीं चाहते
और ढूंढ़ते रहते हैं
जीवन की उपयुक्त संज्ञा।
---------
~s-roz~
सरोज सिंह - जन्म :बलिया (उ .प्र .) 28-01-70 निवास : जयपुर!
डी.एस.बी. परिसर कुमाऊँ विश्वविद्यालय , नैनीताल से भूगोल विषय में स्नातकोत्तर एवं बीएड । जयपुर (सीआईएसऍफ़) के परिवार कल्याण केंद्र की संचालिका के तौर पर कार्यरत। संकलन 'स्त्री होकर सवाल करती है' और विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। उनका ब्लॉग है 'आगत का स्वागत'
(चित्र परिचय: शर्ले शेल्टन की पेंटिंग डिवोशन - अ कपल इन लव , गूगल छवि से साभार)
12 टिप्पणियां:
सरोज सिंह की बढ़िया कविताएँ पढ़वाने के लिए आभार आपका!
पांचों कवितायेँ एक से बढ़कर एक ,,दिल पर छाप छोडती हुयी ....बहुत सुन्दर...!!
हर कविता दिल पर छाप छोडती हुई,, बहुत सुन्दर ...!!
बहुत सुन्दर !!
... हर लफ्ज़ मुकम्मल .. हर ख्याल आला .. बेहतरीन पेशकश ... यूं ही नहीं आपका नाम समकालीन बेहतरीन नज़्म-निगारों और रचनाकारों में होता है .. हम कृतज्ञ आपके मित्रों की सूची में जगह पाकर .. :) :)
bahut sarthak aur khoobsoorat kavitayein
गहन रचनाएँ हैं, अनेकानेक बिदुओं को उजागर करती हुई .
सुन्दर पोस्ट
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bahut mermspershi kavita hai.
sarooj didi langham key dino mey nahijaan saki ke aap etni sunder kavita liktee ho. apna no. dena. aapsey baat karney ka bahut an kar raha hai.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (06-07-2013) को <a href="http://charchamanch.blogspot.in/ चर्चा मंच <a href=" पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
behtareen rachnayen...
par Saroj jee kee saari rachnayen... behtareen hi hoti hai !!
shubhkamnayen...
एक से बढ़ कर एक
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