निज़ार को जब पढ़ना शुरु किया तो नेरुदा की याद आती रही और अब नेरुदा को पढ़ता हूँ तो निज़ार याद आने लगते हैं। प्रेम को इसी दुनिया में उपजते हुए देखने और प्रेम के स्पर्श से इसी दुनिया सुन्दर होते हुए देखने की ललक , लालसा और लड़ाई दोनो कवियों के यहाँ है। नेरुदा के बारे में फिर कभी आज तो बस निज़ार की बात करने का मन है।
निज़ार क़ब्बानी (21 मार्च 1923- 30 अप्रेल 1998) की कविताओं के मेरे किए अनुवाद आप 'कर्मनाशा' के अतिरिक्त कई अन्य वेब ठिकानों और हिन्दी की कुछ प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं में पढ़ चुके हैं। प्रेम के रंग में रँगा - रचा और प्रेम को तरह - तरह से रँगने - रचने वाले इस कवि को बार - बार पढ़ने / पढ़वाने का मन करता है।
दो कवितायें / निज़ार क़ब्बानी
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)
०१- आँखें अथाह
अपनी अथाह आँखों के साथ तुम !
तुम्हारा प्रेम
असीम
रहस्यमय
पावन।
जीवन और मृ्त्यु की भाँति
तुम्हारा प्रेम
अपुनरावृत।
०२- तुम्हारी आँखों में
जब मैं यात्रा करता हूँ
तुम्हारी आँखों में
लगता है सवार हूँ जादुई कालीन पर
जिसे उड़ाए लिए चले जाते हैं
वायलेट और गुलाब के बादल।
मैं परिक्रमा करता हूँ
पृथ्वी की तरह
तुम्हारी आँखों में।
5 टिप्पणियां:
कितना प्यार समाया इन दो आँखों में।
सही-सही अनुवाद दिखाया इन दो आँखों में!
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आप बहुत परिश्रम करते हैं डॉ. साहिब!
अथाह आँखें और उसकी अनवरत की जा रही परिक्रमा!
अद्भुत विम्ब हैं ये!!!
आभार!
अनोखे, सुन्दर बिम्ब.........
bahut sundar kalpana hai kavi kee... alag se bimb
सुंदर प्रभाव छोडती रचना.
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