आज ही अब से कुछ ही देर पहले कंप्यूटर पर कुछ खुटर - पुटर करते हुए कुछ - कुछ लिखा है....कविता की शक्ल में। यह जानते हुए कि 'कवित विवेक एक नहिं मोरे'। फिर भी , मन में कुछ आया। कुछ अच्छा लगा , कुछ भाया तो जो भीतर था वह वह शब्द / पद की शक्ल में बाहर निकल आया। आइए , सोने से पहले इसे सहेजते हैं ...साझा करते हैं :
संग - साथअंधेरे में
जब सूझता न हो
हाथ को हाथ
तब तुम रहो संग
चलो साथ -साथ।
हाथ में हो
तुम्हारा गर्म हाथ
डर जाए डर
भाग जाए भय
ठहर जाए
अदृश्य होने को आकुल
कोई टूटती - सी अधबनी लय।
भले ही
हो बेहद बेतुका वक़्त
फिर भी
मिल जाए तुक से तुक
साँस की भाप का इंजन
देर तक दूर तक
चलता रहे छुक -छुक।
न दिखे राह
न हो निश्चित गंतव्य
अनवरत
अट्टहास करता रहे गहन अंधकार
पर रहे यकीन
राह दिखायेंगे ढाई अक्षर
हर जगह हर पल हर बार।
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10 टिप्पणियां:
कितनी सुंदर बात है.
कितना ताकतवर होता है प्रेम ..पर कितना कमज़ोर कर देता है ..नहीं ?
जब तर्क साथ छोड़ देता है, प्रेम जीवन को सम्हाल लेता है।
दर्द के साथ कविता का रिश्ता नजदीक का है....दर्द को महसूसता है दिल और दिल से निकलती है कविता !
जैसा हम सोचते हैं,कागज पर (अब कंप्यूटर पर) उतर जाता है !
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति |
बधाई स्वीकारें ||
ठहर जाए
अदृश्य होने को आकुल
कोई टूटती - सी अधबनी लय।
ऐसी ही लयों का सृजित हो जाना कविता है...!
जी हाँ!
पढ़े-लिखो को तो अक्षर ही राह दिखाते हैं!
sundar kavita.
बहुत दिनों के बाद
एक बहुत बढ़िया प्रेम-कविता पढ़ने को मिली!
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इसके लिए रचनाकार बधाई के पात्र हैं!
kavita kuch aur nahi bs dil ke jajbaat hi to hai..............sundar bhav.
बहुत ही सटीक भाव..बहुत सुन्दर प्रस्तुति
शुक्रिया ..इतना उम्दा लिखने के लिए !!
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