मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

धुन्ध की नर्म महीन चादर के आरपार

डायरी में क्या है ?
स्मृति
स्मृति में क्या ?

पीले उदास पड़ गए पन्नों  पर
अब भी 
एक उजली इबारत।

आज बहुत दिनों बाद ( कविताओं की )  पुरानी डायरी  से संवाद हुआ। शबो -रोज के  सतत जारी तमाशे के बीच से  चुपके से चुराया गया कुछ वक्त उसके साथ बिताया गया और  स्मृति सरोवर में स्नान कर ( एक बार ) फिर आज की अपनी दुनिया में सुरक्षित वापसी - परावर्तन। कभी  कभार लगता है कि स्मृति एक ऐसा खोह है जहाँ 'तुमुल कोलाहल कलह' से विलग होकर , बच कर कुछ देर आत्म संवाद  किया जा सकता है और 'हृदय की बात' तनिक सुनी जा सकती है। कभी - कभार यह भी लगता है कि यह सब कुछ  वास्तविकता से अस्थायी विस्थापन - विचलन का कोई  शरण्य तो नहीं  है शायद?  फिर भी स्मृति का अपना एक संसार है , एक अपनी दुनिया , इसी दुनिया में अवस्थित - उपस्थित एक 'दूसरी दुनिया'। फिर भी इसमे कोई शक - शुबहा  नहीं कि आज की अपनी निज की जो भी दुनिया है वह  कमोबेश उस स्मृति की दुनिया के मलबे पर ही अपनी नींव जमाए बैठी है।बहरहाल, पुरानी डायरी  से संवाद  के क्रम में आज यह  बहुत पुरानी कविता सबके साथ साझा करने का मन है।  आइए , इसे देखें- पढ़े :


ऐसा कोई आदमी

पेड़ अब भी
चुप रहने का संकेत करते होंगे।
चाँद अब भी
लड़ियाकाँटा की खिड़की से कूदकर
झील में आहिस्ता - आहिस्ता उतरता होगा।
ठंडी सड़क के ऊपर होस्टल की बत्तियाँ
अब भी काफी देर तक जलती होंगी।

लेकिन रात की आधी उम्र गुजर जाने के बाद                           
पाषाण देवी मंदिर से सटे
हनुमान मन्दिर में
शायद ही अब कोई आता होगा
और देर रात गए तक
चुपचाप बैठा सोचता होगा -
                  स्वयं के बारे में नहीं
                  किसी देवता के बारे में नहीं
                  मनुष्य और उसके होने के बारे में।

झील के गहरे पानी में
जब कोई बड़ी मछली  सहसा उछलती होगी
पुजारी एकाएक उठकर
कुछ खोजने - सा लगता होगा
तब शायद ही कोई चौंक  कर उठता होगा
और मद्धिम बारिश में भीगते हुए
कंधों पर ढेर सारा अदृश्य बोझ लादे
धुन्ध की नर्म महीन चादर को
चिन्दी- चिन्दी करता हुआ
मल्लीताल  की ओर लौटता होगा।

सोचता हूँ
ऐसा कोई आदमी
शायद ही अब तुम्हारे शहर में रहता होगा
और यह भी
कि तुम्हारा शहर
शायद ही अब भी वैसा ही दिखता होगा!
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8 टिप्‍पणियां:

arun dev ने कहा…

अच्छी कविता... कुछ फ्रेश बिम्ब.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

वैसा दिखने का भ्रम पाले न जाने कितना सच बहा चुके हैं हम।

Arvind Mishra ने कहा…

स्मृति सरोवर -बढियां लगा -कभी कभी यह शगल भी !

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

badhiya kavita

संतोष त्रिवेदी ने कहा…

अब वैसा शहर रहा ना गाँव ! सुन्दर लगी आपके अतीत की अभिव्यक्ति !

राजेश उत्‍साही ने कहा…

अपनी ही खोज की कविता है यह। इस तरह खुद को खोजना अच्‍छा लगा।

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा मंच-673:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

कितना विरोधाभाष है! वैसे आदमी के न होने का विश्वास और शहर को वैसा ही देखने की इच्छा।
..बहुत अच्छी लगी यह कविता।