इधर कुछ समय से ब्लॉग की दुनिया में आवाजाही बहुत कम हुई है। लिखने - पढ़ने के क्रम में भी व्यवधान हुआ है, फिर भी कुछ न कुछ भीतर घुमड़ता ही रहता है । आज अपनी एक कविता 'बनता हुआ मकान' की याद हो आई है। इसे आज से पाँच - छह बरस पहले लिखा गया था। हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई दुनिया के पाठकों के साथ इसको साझा करने का मन है। आइए देखते - पढ़ते है यह कविता :
बनता हुआ मकान
यह एक बनता हुआ मकान है
मकान भी कहाँ
आधा अधूरा निर्माण
आधा अधूरा उजाड़
जैसे आधा - अधूरा प्यार
जैसे आधी अधूरी नफरत।
यह एक बनता हुआ मकान है
यहाँ सबकुछ प्रक्रिया में है- गतिशील गतिमान
दीवारें लगभग निर्वसन है
उन पर कपड़ॊं की तरह नहीं चढ़ा है पलस्तर
कच्चा - सा है फर्श
लगता है जमीन अभी पक रही है
इधर - उधर लिपटे नहीं हैं बिजली के तार
टेलीफोन - टीवी की केबिल भी कहीं नहीं दीखती।
अभी बस अभी पड़ने वाली है छत
जैसे अभी बस अभी होने वाला है कोई चमत्कार
जैसे अभी बस अभी
यहाँ उग आएगी कोई गृहस्थी
अपनी संपूर्ण सीमाओं और विस्तार के साथ
जिसमें साफ सुनाई देगी आलू छीलने की आवाज
बच्चॊं की हँसी और बड़ों की एक खामोश सिसकी भी।
अभी तो सबकुछ बन रहा है
शुरू कर कर दिए हैं मकड़ियों ने बुनने जाल
और घूम रही है एक मरगिल्ली छिपकली भी
धीरे - धीरे यहाँ आमद होगी चूहों की
बिन बुलाए आयेंगी चीटियाँ
और एक दिन जमकर दावत उड़ायेंगे तिलचट्टे।
आश्चर्य है जब तक आउँगा यहाँ
अपने दल बल छल प्रपंच के साथ
तब तक कितने - कितने बाशिन्दों का
घर बन चुका होगा यह बनता हुआ मकान।
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14 टिप्पणियां:
एक का घर दूसरे के हवाले।
What a wonderful observation! Beautiful poem .
आधे-अधूरे प्यार और नफ़रत के बीच …जाने कितने जीव रेंग कर बस गये…
कविता शानदार है …
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद्|
भौतिक विज्ञानी इसी प्रक्रिया को एंट्रापी कहते हैं :)
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की गई है! आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो
चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
is makan mein kaun kisko saaghidaar banaye ga,biology mein ise symbiosys kahte hain.
अभी तो सबकुछ बन रहा है
शुरू कर कर दिए हैं मकड़ियों ने बुनने जाल
और घूम रही है एक मरगिल्ली छिपकली भी
धीरे - धीरे यहाँ आमद होगी चूहों की
बिन बुलाए आयेंगी चीटियाँ
और एक दिन जमकर दावत उड़ायेंगे तिलचट्टे।
बहुत सुंदर.
धन्यबाद.
बिन बुलाये महमान पहले ही चले आते हैं ..
सुन्दर चिंतन....
सादर...
वाह...क्या बेहतरीन कविता है आपकी!!
"क्यों हवेली के उजड़ने का मुझे अफ़सोस हो
सैकड़ों बेघर परिंदों के ठिकाने हो गए "
अपनी नज़र तो आधे भरे हुए गिलास पर ही है..
बहरहाल, कविता शानदार है सर. :-)
bahut sundar
जीवन हर जगह है। बनते हुए घर में और अधबने घर में भी।
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