इस समय सर्दियों का मौसम है । इसी मौसम में पहले कभी कभार बहँगी पर गज़क - रेवड़ी बेचने वाले दीख जाया करते थे। अब वह दीखते तो हैं लेकिन बहँगी की जगह ठेले - साईकिल ने ली है। अभी कुछ ही दिन पहले अपने कस्बे की एक बनती हुई कालोनी की अधबनी सड़क से गुजरते हुए एक आदमी को बहँगी पर सब्जी बेचते हुए देखा तो लगा कि यह एक ऐसा दॄश्य है जो गायब होता जा रहा है। अब तो बहँगी जैसी चीज हमारे परिदृश्य से अलोप -सी हो गई है। आजकल यदि अपने बच्चॊं को बताना हो कि बहँगी जैसी चीज क्या होती है , कैसी होती है तो कोई जीवंत - जीवित - सजीव उदाहरण शायद ही मिल सके । हाँ , किस्से कहानियों में यह जरूर विद्यमान है ; मसलन श्रवण कुमार का अपने माता - पिता को बहँगी में बिठाकर 'तीरथ कराना' या फिर छठ पूजा के पारंपरिक गीतों में 'काँचहि बाँस क बहंगिया बहँगी लचकत जाय' जैसे गीत .. किन्तु हमारे आसपास की दुनिया में बहँगी जैसी चीज अब नहीं है। उस दिन सब्जी लदी बहँगी और लगभग घुटनों तक ऊँची धोती और आसमानी रंग का कुर्ता पहने उस 'तरकारी बेचनहार' को देखकर लगा था कि यह दृश्य शायद आखिरी बार देख रहा हूँ। थोड़ी देर को तो ऐसा भी लगा था कि आँखों के सामने से गुजरने वाला यह मंजर सचमुच असली भी या नहीं ! एक बार को मन हुआ कि रुककर उसकी एक तस्वीर मोबाइल कैमरे में कैद कर लूँ फिर लगा कि ऐसा करना इतिहास में दाखिल होते हुए एक महत्वपूर्ण क्षण में व्यवधान डालना होगा और कंधे पर लचकती हुई बाँस की बहँगी को संभाले तरकारी बेचते उस आदमी के जरूरी काम में दखल देने की धृष्टता करना होगा , सो , चुपचाप आगे बढ़ गया और घर आकर आज से पाँच -छह बरस पहले लिखी अपनी एक कविता को डायरी के पन्ने खोलकर मन ही मन बाँचता रहा ।अच्छी तरह पता है कि मेरी यह कविता दृश्य के भीतर से गायब होते एक दृश्य को बचाने की कोशिश का शाब्दिक प्रयास भर है ; फिर भी ... आज के दिन आइए साझा करते है यह कविता....
वह देखो
एक आदमी
निचाट-सी दोपहर में
बहँगी लिये हुए जा रहा है .
गांव की गड्ढेदार पक्की सड़क पर
कितनी छोटी होती जा रही है उसकी छाया ।
दुलकी चाल से लचक रही है बाँस की बहँगी
जैसे रीतिकालीन कवियों के काव्य में
लचकती पाई जाती थी नायिका की क्षीण कटि
वही नायिका जो संस्कृत काव्य ग्रन्थों में
तन्वी - श्यामा - शिखर - दशना भी होती थी
और हिन्दी कविता का स्वर्णकाल कहे जाने वाले
छायावाद के ढलान पर
इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ती पाई गई थी।
और अब....?
कवि हूँ
मेरे पास नहीं है इसका ठीकठाक जवाब
शायद इसीलिए शब्दों के तानेबाने में
तलाश रहा हूँ एक सुरक्षित प्रसंग
जैसे समय के बहाव में
बहती हुई मिल गई यह बाँस की बहँगी।
यह कोई इस्पात की तनी हुई लम्बी स्प्रिंग नहीं है
शायद लौहयुग से पूर्व का लग रहा है कोई औजार
क्या पता !
भोथरे हो गए तीरों को गति देने वाले धनुष
बाद में आने लगे हों इसी काम.
फिलहाल इस दृश्य में शामिल है बहँगी
जिसके एक पलड़े में सिद्धा-पिसान तर - तरकारी
दूसरी ओर सजाव दही की कहँतरियों का जोड़ा
और बीच में
किसी आदमजात का मजबूत कंधा अकेला एक।
कंधे पर लचक रही है बाँस की बहँगी
अचानक याद आ गए है अखबारों में काम करने वाले दोस्त
इस दृश्य को मोबाइल की आंख में कैद कर लूँ
निकल कर आएगा बहुत ही अनोखा चित्र
देख - देख खुश होंगे महानगर निवासी मित्र.
कितना मुश्किल है
उपसंहार की शैली में यह कहा जाना
कि यह इस शताब्दी का आखिरी आदमी है
जो इस समय के बीचोबीच
मेरे गाँव की पक्की गड्ढेदार सड़क से गुजर रहा है
समय को रौंदता हुआ अकेला चुपचाप।
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( चित्रकृति : लिज़ लैम्बर्ट )
8 टिप्पणियां:
आपकी बात में दम है।
क्योंकि सत्यता को झुठलाया नहीं जा सकता है!
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रचना भी लाजवाब है!
पुराने चावलों की महक बरकारार है साहिब!
दमदार अभिव्यक्ति।
सच से इनकार मुमकिन नहीं
sundar kavita hai sidheswar ji.
तुम्हारी नज़रों के कायल हैं यहाँ ...कहाँ कहाँ देख लेती हैं आँखें तुम्हारी
बहंगी का चित्र क्यों नहीं लगाये ! दर्शन तृप्ति तो तभी होती :)
निसंदेह......पर उस लम्हे को कैद कर लेते.....तो इतिहास में सनद रह जाती......
कविता विचारो का झंझावात चलाती है
बहँगी हमने भी बहुत देखी हैं, पर नाम आज पहली बार पता चला है, कल ही बेटे को श्रवण कुमार की कहानी सुना रहे थे.. इस आस में कि शायद वो भी बनें.. पता नहीं.. पर कविता की अंत पंक्ति बहुत ही जबरदस्त है ।
"समय को रौंदता हुआ अकेला चुपचाप।"
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