अक्सर ऐसा होता है कुछ पढ़ते - पढ़ते लिखने का मन हो आता है। और जब तक लिख न लिया जाय तब तक लगता है कि अपना कुछ सामान कहीं कहीं खोया हुआ है। लिखने के बाद (भी) लगता है कि जो कुछ सोचा , महसूस किया ( था) उसे रूपायित करने में कितना संकोच बरत गई भाषा।एक बार फिर आज कुछ शब्द , जिनमें अपने सोचने व होने का अक्स देखा जा सकता है।आइए देखते हैं...
धीरे - धीरे : ०१
धीरे - धीरे आती है शाम
धीरे - धीरे उतरता है सूरज का तेज।
धीरे - धीरे घिरता है अँधियारा
धीरे - धीरे आती है रात।
धीरे - धीरे लौटते हैं विहग बसेरों की ओर
धीरे - धीरे नभ होता है रक्ताभ।
धीरे - धीरे कसमसाती है कविता की काया
धीरे - धीरे सबकुछ होता जाता है गद्य।
धीरे - धीरे
देखती रहती हैं आँखें सुन्दर दृश्य।
फिर भी
कम नहीं होता है कुरुपताओं का कारोबार
धीरे - धीरे ..!
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धीरे - धीरे : ०२
एक रहस्य है
जो खुल रहा है धीरे - धीरे।
एक गाँठ है
जो कस रही है खुलते - खुलते।
एक छाया है
जिसमें पाते हैं हम तीव्र तपन।।
एक नाम है
जिसे कहना जादू हो जाना है।
एक रूप है
जिसमें दिखता है सारे संसार का अक्स।
एक धैर्य है
जिससे प्रेरणा पाते हैं धरती और आकाश
एक धैर्य है
जो उफनने से रोके हुए है सात समुद्रों को..
वही , हाँ वही
तुम्हारी उपस्थिति के सानिध्य में
टूट रहा है
धीरे - धीरे !
7 टिप्पणियां:
बेहतरीन भाव संग्रह्…………दोनो ही रचनायें शानदार संदेश दे रही हैं।
बहुत बढ़िया!
धीरे-धीरे सब कुछ हो जाता है और हमें पता भी नही चलता।।
सचमुच यहां सब कुछ तो धीरे धीरे ही होता है। और हमें लगता है समय कितनी तेजी से बीत रहा है।
इस धीरे धीरे वर्धन में जीवन के सब नर्तन हैं,
जीवन के हर क्रम का फल भी जीवन को ही अर्पण हैं।
ज़िंदगी
बीत रही है
धीरे धीरे
सारे भाव
उतर आये
मन में
धीरे धीरे..
बहुत खूबसूरती से धीरे धीरे का प्रयोग किया है ..
धीरे धीरे पढ़ रहा हूँ यह कविता ।
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