शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

आज उस साधारण व्यक्ति का जन्मदिन है जिसकी उपलब्धियाँ असाधारण रहीं


आज दो अक्टूबर है। आज गाँधी जयंती है। अभी कुछ ही देर पहले इस अवसर पर आयोजित दो शैक्षिक कार्यक्रमों में शिरकत कर लौटा हूँ। वहाँ वही सब कुछ हुआ जो इस अवसर पर होता है , होता रहा है। हाँ, बच्चे आज के दिन तैयारी करके आते हैं और उनके मुख से कुछ सुनना अच्छा लगता है। आज के दिन बार - बार मैं अपने स्कूली दिनों को याद करता हूँ जब बड़े उत्साह से अपन आज के नारे लगाते थे और कार्यक्रमों में भाग लेते थे थे। अब तो ऐसा लगने लगा है कि जि जैसे लोग 'भाग' ले रहे हों , एक लगभग रस्म अदायगी जैसा कुछ। खैर, यह दुनिया है यह अपनी ही चाल में चलती है। बस कोशिश यह रहे कि अपनी 'चाल' न बिगड़ने पाये।

आज के दिन अभी मन हुआ कि इस 'छुट्टी' का लाभ लेकर कुछ पढ़ा जाय। एकाध किताबें निकालीं लेकिन यूँ ही पन्ने पलटकर रख दिया और कविताओं की पुरानी डायरी के पन्नों को पलटना शुरू किया। इसमें एक कविता है - 'बापू के प्रति' | यह मेरी पहली कविता है। उस समय मैं क्लास नाइन्थ का विद्यार्थी था। अच्छी तरह याद है कि उस दौर में अपने गाँव से तीन किलोमीटर दूर कस्बे में स्थित इंटर कालेज तक जाने के लिए सड़क नहीं थी ( न ही गाँव में बिजली थी ) और हम लोग धान के खेतों की मेड़ और नहर की पटरी से होकर जाया करते थे। उस साल दो अक्टूबर को सुबह - सुबह पता नही क्यों कुछ ऐसा लगा था कि कुछ न कुछ लिखना चाहिए और जब लिख - सा लिया तो मन हुआ कि इसे सबको सुनाना भी चाहिए। दिन अच्छा था, अच्छा अवसर भी था , स्कूल के कार्यक्रम में मौका भी मिल गया। 'आदरणीय' , 'माननीय' आदि के संबोधन के उपरांत भूमिका स्वरूप केवल एक वाक्य कहा था - "आज उस साधारण व्यक्ति का जन्मदिन है जिसकी उपलब्धियाँ असाधारण रहीं"। उस समय मैं बालक था, जो मन में आया वह बोल दिया। पता नहीं इस वाक्य में ऐसा क्या खास या ठीकठाक था कि प्रिंसिपल साहब व कुछ अध्यापकों ने कहा कि तुम्हें इस साल अंतरवियालयी डिबेट में भाग लेना होगा और जब कविता सुनाई अध्यापकों की यह प्रतिक्रिया थी कि बेटा अभी खूब पढ़ो और कविता कम लिखो। इसके बाद तो डिबेट , नाटक इत्यादि में भाग लेने का जो क्रम जारी हुआ वह विश्वविद्यालय स्तर तक जमकर चला। खूब पढ़ने का क्रम अब भी जारी है और कम लिखने का सिलसिला भी बदस्तूर चल ही रहा है। मैं कविता या कवितानुमा कुछ लिख लेता हूँ। कैसा लिखता हूँ यह तो सुधी पाठक ही बतायेंगे लेकिन आज दो अक्टूबर के बहाने पुरानी डायरी के पन्ने पलटते हुए हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई दुनिया में अपनी 'पहली कविता' साझा करने का मन हो रहा है। तो आइए, इसे देखें - पढ़े :



बापू के प्रति

श्रद्धा के  फूल   चढ़ाता   हूँ,
हे बापू ! कर लो स्वीकार।
एक बार    आओ भारत में ,
फिर से करो इसका उद्धार।

अहिंसा का मार्ग दिखाकर,
हिंसा   को दूर   भगा    दो।
देकर अपनी शिक्षाओं को,
फिर से रामराज्य ला दो।

वैसा  ही प्यार    सिखाओ,
जैसा तुम करते थे प्यार।
भारत बने अहिंसा- परक,
विश्व करे उसका सत्कार।

जिनको सौंपा था काम,
कर   रहे   नहीं कल्याण।
है    चारों   ओर     अँधेरा,
मुश्किल में सबके प्राण।

पुकार रही भारत की जनता,
विश्वास है फिर से आओगे।
आकर   के इस   भारत को,
धरती का स्वर्ग बनाओगे।

4 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

दो अक्टूबर को जन्मे,
दो भारत भाग्य विधाता।
लालबहादुर-गांधी जी से,
था जन-गण का नाता।।
इनके चरणों में मैं,
श्रद्धा से हूँ शीश झुकाता।।

कडुवासच ने कहा…

... sundar rachanaa ... behatreen post !!!

Akshitaa (Pakhi) ने कहा…

बापू जी तो हम बच्चों को खूब प्यार करते थे...प्यारी लगी यह कविता. 'पाखी की दुनिया' में आपका स्वागत है.

राजेश उत्‍साही ने कहा…

आज के किसी विचारवान बच्‍चे से अगर गांधी जी पर कविता लिखने के लिए कहा जाए तो वह ऐसी ही कविता लिखेगा। और हम उसे वही सलाह देंगे जो आपके शिक्षकों ने आपको दी थी।
बहरहाल इस तरह गांधीजी को याद करना अच्‍छा लगा। मैंने अपने ब्‍लाग गुलमोहर में बापू के नाम तीन कविताएं लिखीं हैं। समय मिले तो आकर पढ़ें।