रविवार, 10 अक्टूबर 2010

सरसों के एक अकेले दाने की तरह


असम और असमिया साहित्य - संगीत मेरे लिए हमेशा से आकर्षण का विषय रहा है। वहाँ जाने , देखने , रहने से पूर्व इस आकर्षण को तीव्र करने में कुबेरनाथ राय के ललित निबंधों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। जिस दुनिया में मैं बड़ा हुआ उससे कुछ अलग व अनोखी दुनिया है वह; केवल असम ही क्यों पूरा पूर्वोत्तर भारत ही। वहाँ बिताये आठ - साढे़ आठ वर्षों में बहुत वहाँ से बहुत कुछ सीखा - समझा है। वहाँ के भाषा व साहित्य से रिश्ता मजबूत हुआ जो अब भी बना हुआ है। 'कर्मनाशा' पर मेरे द्वारा किए गए अनुवाद को ठीकठाक माना गया है और पत्र - पत्रिकाओं में इस नाचीज का अनुवाद कर्म प्रकाशित हुआ है / प्रकाशनाधीन हैं। इसी क्रम में आज प्रस्तुत है असमिया की एक बड़ी साहित्यिक प्रतिभा निर्मल प्रभा बोरदोलोई (1933 - 2003)  की एक कविता :











निर्मल प्रभा बोरदोलोई की कविता
अमूर्ततायें
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

 I
सुदूरवर्ती किसी सहस्त्राब्दि में
शुरू हुआ था मेरा आरंभ

एक दूसरे को जन्म देती परम्पराओं के क्रम में
सतत सक्रिय है मेरी यात्रा
जो समा गई है इस उपस्थित क्षण में।

अंधकार की टोकरी में
रेंग रही हूँ मैं
सरसों के एक अकेले दाने की तरह।

 II
एक अदृश्य सरसराहट का हाथ थामे
बाहर आ गई हूँ मैं
और निहार रही हूँ घर को।

एक अजनबियत है बहुत भारी
गुरुतर
वजनदार
...और धँसता चला जा रहा है पूरा मकान।
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* निर्मल प्रभा बोरदोलोई की दो कविताओं और परिचय के लिए यहाँ जाया जा सकता है।

4 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

साहित्यिक प्रतिभा निर्मल प्रभा बोरदोलोई की कविताओं का आपने बुत सुन्दर अनुवाद किया है!


माँ सब जग की मनोकामना पूर्ण करें!
जय माता दी!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

उत्तम अभिव्यक्ति व अनुवाद।

कडुवासच ने कहा…

... saarthak post !

शरद कोकास ने कहा…

बहुत बढ़िया अनुवाद है सिद्धेश्वर जी ।