गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

ओह ! सिल्विया प्लाथ ! !




* २८ अक्टूबर २०१० / सुबह....

* कल सुबह से यह ध्यान में था कि सिल्विया प्लाथ ( २७ अक्टूबर १९३२ - ११ फरवरी १९६३)  का जन्मदिन आज ( अब तो कल कहा जाएगा !)  ही है। सुबह से शुरु हुई दैनंदिन व्यस्तताओं के कारण किताब उठाकर इसकी तसदीक न कर सका। सोचा था कि शाम को थोड़ा समय मिलने पर सिल्विया को एक बार  पलटूँगा और मन हुआ तो कुछ लिखूँगा या उसकी एकाध कविता का अनुवाद करूंगा। शाम को थोड़ा समय मिला तो थकान उतारने की प्रक्रिया में कुछ गंभीर पढ़ने का मन न हुआ और जब रात घिरी तो बच्चों की डिमांड पर एक पारिवारिक मित्र के यहाँ कर्टसी  विजिट का कार्यक्रम बन गया। वहाँ गए तो पता चला कि आज उनकी छॊटी बिटिया का जन्मदिन है। अरे!  हमें तो पता भी न था या कि हमीं से याद रखने में कोई कसर रह गई? अक्सर ऐसा होता है! क्या किया जाय इस भुलक्कड़पने का या फिर कैलकुलेटिव होने में तनिक स्लो होने या पिछड़ जाने का?

* रात को कस्बे से गाँव की ओर लौटते समय हल्की ठंड थी और हल्की धुंध भी। यह देख - महसूस कर फिर सिल्विया की याद हो आई, जाड़े - सर्दियों से जुड़ी उसकी कई कविताओं की भी। किताब छानी तो पता चला कि अरे! आज ही  तो अंग्रेजी की इस कवि का जन्मदिन है। मैं एक दिन बाद का सोचकर कुछ लिखना - पढ़ना यूँ ही टाल रहा था। कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं इस टालूपने को इंज्वाय करने लगा हूँ या फिर ऐसा भी हो सकता है कि यदि इस तरह की चीजों में इंज्वायमेंट ( इस्केप?/ !) न खोजा जाय तो सबकुछ वैसा ही न हो जाय - अपनी रुटीन पर चलता - घिसटता - कैलकुलेटिव  !

* 'कवि' शब्द पर कुछ लोगों को आपत्ति  हो सकती है कि 'कवयित्री' क्यों नहीं? भाषा में जेंडर ( व और भी स्तरों पर) न्यूट्रल होना क्या कोई बुरी बात है? हिन्दी की साहित्यिक दुनिया के बहुत बड़े हिस्से में जहाँ अब भी साहित्यकरों  के लिए 'जाज्वल्यमान' और 'देदीप्यमान' जैसे विशेषणों से बचने की वयस्कता  नहीं आई है वहाँ क्या किया जाय! और तो और हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई ( यह) दुनिया ! खैर इसी दुनिया में / इसी दुनिया के कारण लिखने - पढ़ने और लिखे - पढ़े को शेयर करने के कारण बहुत लोगों से संवेदना व समानधर्मिता के तंतु जुड़े हैं। संचार इस जादू ने एक नई दुनिया तो खोली ही है साथ ही इसने इस दुनिया में गंभीरता से गुरेज की राह को भी खोला है। यह एक सार्वजनिक पटल पर वैयक्तिक उपस्थिति के  का वैयक्तिक मसला भर नहीं है। इससे से/ इससे भी  बनता - बिगड़ता है हमारी अपनी  हिन्दी का सार्वजनिक संसार!

* आज सुबह जल्दी नींद खुल गई। रात में यह सोचकर सोया था कि सुबह सिल्विया प्लाथ पर कुछ लिखूँगा लेकिन अब इस समय लग रहा है उसे तो मैंने कायदे से पढ़ा ही कब है? बार - बार शुरू करता हूँ और बार - बार फँस जाता हूँ, भटक- अटक जाता हूँ। कल रात भी ऐसा ही हुआ। ब्लॉग के माध्यम से ही जुड़े एक संवेदनशील साथी से चैट पर वादा भी कर लिया था कि उन्हें सिल्विया प्लाथ  पर कुछ न कुछ  भेजूँगा जरूर , अनुवाद या और कुछ पढ़ने लायक, लेकिन ऐसा न हो सका। इतना जरूर हुआ कि सोने से पहले सिल्विया के साहित्य से खुद को ( फिर एक बार) रिफ्रेश किया। 

* कोई जरूरी तो नहीं कि हर चीज जो पढ़ी जाय उस पर / उसके बारे में लिखा ही जाय?

* एनी वे, आज दिन में और शाम को सोने से पहले तक एक बार फिर सिल्विया प्लाथ की सोहबत में गुजरेगा आज का दिन!

* जन्मदिन मुबारक सिल्विया! बिलेटेड! 



4 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

हम प्रतीक्षा में हैं, आप अवश्य लिखे, शीघ्र।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

जन्मदिन मुबारक सिल्विया!
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अन्तःमन का सुन्दर चित्रण किया है आपने!

Rangnath Singh ने कहा…

अब क्या कहुं !!

कडुवासच ने कहा…

... shubh diwaali !!!