अन्ना अख़्मातोवा (जून ११, १८८९ - मार्च ५, १९६६) की मेरे द्वारा अनूदित कुछ कवितायें आप 'कर्मनाशा' और 'कबाड़खा़ना' पर पहले भी पढ़ चुके हैं । रूसी की इस बड़ी कवि को बार - बार पढ़ना अच्छा लगता है और जो चीज अच्छी लगे उसे साझा करने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। सो ,आज बिना किसी विस्तृत लिखत - पढ़त के प्रस्तुत है अन्ना अख़्मातोवा एक कविता ......
जश्न की रात
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
आओ ! अपनी सालगिरह का जश्न मनायें !
क्या तुम देख नहीं रहे हो
कितनी बर्फबारी से भरी है
सर्दियों की यह अपनी पहली रात.
हर रास्ते पर
हरेक वृक्ष पर
उभर रही है हीरे जैसी आभा
और लगातार जारी है जाड़े का जलसा.
पुराने , पीतवर्णी घुड़सालों से उठ रही है भाप
बर्फ के भीतर डूबती जा रही है मोइका नदी
किस्से - कहानियों में बखाने गए रहस्यों की तरह
धुन्ध में छिटक रही है चाँदनी
और किस ओर , किस दिशा में बढ़ते जा रहे हैं हमारे कदम
- मुझे कुछ नहीं मालूम.
हिमशिलाओं से भर गया है
मार्सोवो पोल का अतिविस्तीर्ण उपवन
स्फटिक की चित्रकारी से
उन्मत्त हो गई है लेब्याझ' या नाम्नी झील...
वह कौन है जिसके प्राण से
तुलना की जा सकती है मेरे प्राणों की
तब, जबकि भय और आनन्द
दोनों एक साथ हैं मेरे हृदय में विराजमान ?
इस रात में तुम्हारी आवाज
जैसे कि
किसी खूबसूरत चिड़िया की फड़फड़ाहट
बैठ गई हो मेरे कंधों पर.
बर्फ के रुपहले उजास से भरी इस रात में
तुम्हारे शब्दों की
अकस्मात उदित हुई रश्मियों से
गुनगुना होता जा रहा है मेरा समूचा अस्तित्व.
5 टिप्पणियां:
शुक्रिया इस रचना को पढाने के लिए.
अन्ना अख़्मातोवा की रचना का बहुत सुन्दर अनुवाद किया है आपने!
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वाकई रूसी की इस बड़ी कवि को बार - बार पढ़ना मुझे भी अच्छा लगता है!
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क्योंकि इस रचना का अनुवाद ही इतना सुन्दर है!
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बहुत अच्छी गुनगुनाहट है!
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... ब्लाग बेहद प्रसंशनीय है, बधाई !!!
आपको एवं आपके परिवार को दुखद और जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें !
बहुत बढ़िया ! उम्दा प्रस्तुती!
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