* टिप्पणी ( २३ अगस्त २०१० / ३.५८ बजे / दोपहर बाद ) : यह पोस्ट परसों रात को लगाई थी। सुबह - सुबह मयंक जी के मेल / फोन से पता चला कि इस पूरी पोस्ट का पाडकास्ट अर्चना चावजी ने तैयार किया है। उसे सुना तो अच्छा लगा कि मेरे जैसा आलसी व्यक्ति 'कर्मनाशा' पर कुछ यूँ - सा लिखता है तो उसे पढ़ा व पसंद भी किया जाताहै। हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में साझेदारी बहुत जरूरी है। मुझे खुशी है कि यह पोस्ट साझेदारी का एक अच्छा उदाहरण कही जा सकती है क्योंकि कवितायें अजेय जी की हैं, पाडकास्ट अर्चना चावजी ने तैयार किया है और इसके निमित्त मयंक जी बने हैं। मैं तो बस प्रस्तुतकर्ता भर हूँ। पिछले एक दिन से मेरे टेलीफोन और इंटरनेट का हाल बेहाल था बस अभी कुछ देर पहले ही उसकी तबीयत दुरुस्त हुई है सो अजेय जी, मयंक जी और अर्चना चावजी के साथ धन्यवाद बी. एस. एन.एल. की डाटावन सेवा को भी। अब इस पोस्ट को पढ़ते हुए अर्चना चावजी के सधे और सुस्पष्ट स्वर में सुना भी जा सकता है। उन्हें बहुत - बहुत धन्यवाद ! तो आइए सुनते हुए पढ़ें या पढ़ते हुए सुनें।
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वह आता है
जैसे तितलियों का झुण्ड
विराजता है
जैसे सम्राट
और खिसक जाता है
जैसे चोर .
ऊपर लिखी पंक्तियाँ अजेय की है;वही अजेय जो हिन्दी का सुपरिचित कवि है। अजय केलंग में रहते है। केलंग हिमाचल प्रदेश के लाहुल - स्पीति जिले का मुख्यालय है। हमारे लिए रोहतांग जोत के पार का वह इलाका जो 'दुर्गम' कहा जाता है। अभी कुछ महीने पहले तक यह मेरे लिए 'दूसरी दुनिया' थी और यहाँ के बारे में जो भी जानकारी थी वह किताबो ,किस्सों ,पत्र- पत्रिकाओं और इंटरनेट के आधार पर निर्मित थी। इसी साल मई के आखीर में कुछ ऐसा संयोग बना कि केलंग तक हो आया और ऊपर लिखी पंक्तियों के 'वह' को देख - मिल आया। 'वह' बोले तो कौन? 'वह' यानि बर्फ़ / बर्फ़बारी / हिम / ह्यूँद..। हमारे कविमित्र विजय गौड़ ने लिखा है कि उनके लिए केलंग का मतलब अजेय है अर्थात केलंग = अजेय या अजेय = केलंग। हिन्दी साहित्य की दुनिया के चलते - फिरते इनसाइक्लोपीडिया बड़े भाई वाचस्पति ने भी फोन पर चेताया कि केलंग जा रहे हो तो अजेय से जरूर मिलना। अब मैं उनसे क्या कहता कि केलंग के मेरे आकर्षणों में अजेय का नाम सबसे ऊपर है क्योंकि कविताओं में मैं जिस इंसान को मैं देखता आया हूँ वह कुछ अलग - सा लगता है। इसलिए नही कि कि वह एक 'अलग -सी दुनिया' में रहता है जो आमतौर पर 'दुर्गम' है, 'भीषण सुन्दर' है बल्कि वह उस परिवेश की बात करता है जो हिन्दी साहित्य के जरिए बहुधा रुमानी बनाकर पेश किया जाता रहा है मानो धुर हिमालयी दुनिया एक अलग द्वीप है सौन्दर्य ,रहस्य और अध्यात्म की धुंध लिपटी - सिमटी ;गोया वहाँ मनुष्य रहते ही न हों। अजेय अपनी कविताओं में वहाँ की माटी, मनुष्य और मौसम की बात सीधे , सहज सरल शब्दों में करते हैं ।यह एक ऐसी सहजता है जो संवेदना और शब्द के प्रति सच्ची ईमानदारी से उपजती है।
यह ठीक है कि केलंग की दुनिया एक अलग - सी दुनिया है; एक ऐसी दुनिया जो जाड़े महीनों के लिए शेष दुनिया से विलग हो जाती है किन्तु वह दूसरी तरह के मनुष्यों की दुनिया नहीं है। वह इसी दुनिया के मनुष्यों का एक संसार है सुख - दु:ख की साझी साधारणता में सीझता हुआ। केलंग की ढेर सारी तस्वीरें मेरे कैमरे में कैद है और स्मृतियों में वहाँ बिताए चार - पाँच दिन - रात के सिलसिले। कविताओं से परे कवि अजेय से मिलना और एक अच्छे इंसान से मिलने का सुख पाना। केलंग तस्वीरों में बहुत सुंदर दिखाई देता है । तस्वीरों से बाहर और परे भी वह कम सुंदर नहीं है। सुख - सुविधाओं के साजो सामान से परिपूर्ण होटल चन्द्रभागा की खिड़की से भी वह बहुत सुन्दर दिखाई देता है।जनजाति संग्रहालय में भी उसकी खूबसूरती के नमूनों का संग्रह है। बर्फ़बारी में भी वह सौन्दर्य से भरपूर नजर आता है। आरामदेह गाड़ी की फ्रंट सीट पर बैठकर कैमरा क्लिकाते हुए भी वह बेहद भला - सा लगता है लेकिन क्या वह इतना भर ही है? क्या इतने भर में ही हम केलंग को पकड़ पाते हैं? आइए देखते है कि केलंग के वासी अजेय की कविताओं में कैसी दिखती है केलंग की दुनिया :
अजेय की चार कवितायें
केलंग-१ / हरी सब्जियाँ
'फ्लाईट´ में सब्ज़ी आई है
तीन टमाटर
दो नींबू
आठ हरी मिरचें
मुट्ठी भर धनिया
सजा कर रखी जाएँगी सिब्ज़याँ
`ट्राईबेल फेयर´ की स्मारिका के साथ
महीना भर
जब तक कि सभी पड़ोसी सारे कुलीग
जान न लें
फ्लाईट में हरी सब्ज़ियाँ आई है।
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केलंग-२ / पानी
बुरे वक़्त में जम जाती है कविता भीतर
मानो पानी का नल जम गया हो
चुभते हैं बरफ के महीन क्रिस्टल
छाती में
कुछ अलग ही तरह का होता है, दर्द
कविता के भीतर जम जाने का
पहचान में नहीं आता मर्ज़
न मिलती है कोई `चाबी´
`स्विच ऑफ´ ही रहता है अकसर
सेलफोन फिटर का।
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केलंग-३ / बिजली
`सिल्ट´ भर गया होगा
फोरवे´ में
`चैनल´ तो शुरू साल ही टूट गए थे
छत्तीस करोड़ का प्रोजेक्ट
मनाली से `सप्लाई´ फेल है
सावधान
`पावर कट´ लगने वाला है
दो दिन बाद ही आएगी बारी
फोन कर लो सब को
सभी खबरें देख लो
टी० वी० पर
सभी सीरियल
नहा लो जी भर रोशनियों में खूब मल-मल
बिजली न हो तो
ज़िन्दगी अन्धेरी हो जाती है।
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केलंग-४ / सड़कें
अगली उड़ान में `शिफ्ट` कर दिया जाएगा
`पथ परिवहन निगम´ का स्टाफ
केवल नीला टैंकर एक `बॊर्डर रोड्स´ का
रेंगता रहेगा छक-छक-छक
सुबह शाम
और कुछ टैक्सियाँ
तान्दी पुल-पचास रूपये
स्तींगरी-पचास रूपये
भला हो `बोर्डर रोड्स´ का
पहले तो इतना भी न था
सोई रहती थी सड़कें, चुपचाप
बरफ के नीचें
मौसम खुलने की प्रतीक्षा में
और पब्लिक भी
कोई कुछ नहीं बोलता ।
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14 टिप्पणियां:
पहली कविता तो मेरे हृदयक्षेत्र में अनायास ही उतर गयी।
क्या इस पोस्ट पर एक टिप्पणी कर मुक्त हो जाऊं। कई कई अंतरालों की केलांग यात्रा के चलते हुए भी न जान पाया था कि अजेय नाम का कोई युवक कवि केलांग हैं। भला हो "पहल" का जिसने उस कवि तक पहुंचने का मार्ग सुझाया। उसमें पढ़कर ही जाना था कवि को वरना केलांग तो पहले भी गया था कई बार। श्रेय पहल को ही है। पहल के बंद हो जाने का अफसोस है। कितने ही दूसरे ऎसे ही दुर्गम इलाकॊं के अजेय से कौन मिलवाएगा ?
बहुत ही मस्त जगह है केलांग। अभी तक गया तो नहीं हूं, लेकिन जाने की बहुत इच्छा है।
बेशक आलेख प्रभाव शाली है
प्रस्तुति का क्या कहना
गोया रात में रिकार्ड किया गया है पाड्कास्ट में कसारी की आवाज़ की जो संगत कारी वाह क्या कहने
ब्लॉगजगत में आवाज़ और आलेख का ये मेल पोस्ट को और भी प्रभावशाली बना रहा है...
प्रशंसनीय कदम...
शानदार प्रस्तुति...
रक्षाबंधन पर्व की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं.
बहुत बढ़िया प्रस्तुति ..
उम्दा आलेख, कविताओं और प्रस्तुति का अद्भुत संगम. आनन्द आ गया.
यह तकनीक भी क्या चीज़ है. मेरी कविता पूरी हिन्दी पट्टी घूम कर के अपना एक सुन्दर कर्ण प्रिय पाठ साथ ले कर केलंग लौटी है.स्वागत.
यूँ भी अपनी कविताओं का पाठ सुनना एक अद्भुत अनुभव है. थेंक्स , अर्चना जी, मयंक जी तथा सिधेश्वर भाई. मुझे भी बताओ, ये कैसे करना है?
और हाँ, एक करेक्शन है: स्पिति का नही, लाहुल-स्पिति का मुख्यालय है केलंग.
* क्षमा चाहता हूँ अजेय भाई। लाहुल - स्पीति की गलती को सुधार दिया है।
* यह पोस्ट आपको अच्छी लगी यह जानकर मुझे भी अच्छा लग रहा है। वैसे मैं तो प्रस्तुतकर्ता भर हूँ।
* बाकी सब ठीक !
कई दफ़ा आकर लौटी .... इस पोस्ट से
बार बार अपनी पहाड़ी यात्राएं याद आने लगीं
वहां के अनुभव ...जिन्हें कहने से बचती रही
बेहतरीन पोस्ट है
फिर shayad kavi ki hi टिप्पणी कहीं पढ़ी याद आती है ki
पहाड़, वहां के रहने वालों को चूस लेते हैं
डॉ. साहिब इस पोस्ट को पढ़कर और अर्चना चाव जी के स्पष्ट उच्चारण और स्वर में सुन कर बहुत अच्छा लगा!
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पोस्ट के शुरू में आपने मेरा नाम भी दे दिया!
यह आपकी सदाशयता है!
वैसे मेरा नाम लिखने की कोई विशेष आवश्यकता थी नही!
"अजेय अपनी कविताओं में वहाँ की माटी, मनुष्य और मौसम की बात सीधे , सहज सरल शब्दों में करते हैं ।यह एक ऐसी सहजता है जो संवेदना और शब्द के प्रति सच्ची ईमानदारी से उपजती है।" इससे सुंदर ब्याख्या भला क्या हो सकती है, भला अजेय जी जैस कवि के। इन कविताओं के एक-एक शब्द मन व चेतना में ऐसे आत्मसात होते जाते हैं जैसे तप्त व शुष्क धरा पर पडती पहली वृष्टि की शीतल बूँदें। मैं पहली बार आपके ब्लॉग पर आया और मन आनंदित व तृप्त हो गया।
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