विश्व कविता के पाठकों / प्रेमियों के लिए दून्या मिखा़इल कोई नया नाम नहीं है। १९६५ में जन्मी अरबी की इस युवा कवि को दुनिया भर में प्रतिरोध की कविता के एक महत्वपूर्ण स्त्री स्वर के लिए जाना जाता है। आज प्रस्तुत है उनकी एक छोटी किन्तु बेहद चर्चित कविता का अनुवाद...
सर्वनाम / दून्या मिख़ाइल
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)
वह बनता है एक ट्रेन
वह बनती है एक सीटी
वे चले जाते हैं दूर।
वह बनता है एक डोर
वह बनती है एक वृक्ष
वे झूलते हैं झूला।
वह बनता है एक स्वप्न
वह बनती है एक पंख
वे उड़ जाते हैं उड़ान।
वह बनता है एक सेनाध्यक्ष
वह बनती है जनता
वे घोषित करते हैं युद्ध।
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"It's not the task of the writer to talk about her poem; it's the reader's."
-Dunya Mikhail
9 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया साहिब!
सरल शब्दों में अनुवाद करने में आप सिद्धहस्त हैं!
एक बेहतरीन प्रस्तुति. दो लोग आपस में ही अपनी दुनिया बसाये हुए हैं और अपने आप में ही सम्पूर्णता लिए हुए हैं और कभी कभी तकरार भी. शायद ऐसा ही कह रही है ये कविता.
अनुवाद के लिए आभार
ati sunder
वाकई...
अद्भुत कविता..मगर सेनाध्यक्ष भी तो कभी न कभी जनता का हिस्सा होता है..
वह बनता है एक सेनाध्यक्ष
वह बनती है जनता
वे घोषित करते हैं युद्ध
एक दुसरे के पूरक है ,फिर भी सदा अग्रणी ही रहता है वो |
सशक्त कविता :.सत्य को सत्य कहना ही अभिव्यक्ति है ?
बेहतरीन……
वह बनता है एक पाठक
वह बनती है एक कविता ।
वाह सिद्धेश्वर जी ..कविता अपनी अंतिम पंक्तियों मे जिस ऊँचाई पर पहुँचती है वह अद्भुत है ।
कम शब्दों में सशक्त और भावपूर्ण कवितानुवाद।
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