०४ मार्च २०१० / सुबह ०५ : ४५
दिन : वे दिन , ये दिन
( बरास्ता निर्मल वर्मा के शीर्षक)
वे दिन सचमुच थे 'वे दिन'
जब 'लाल टीन की छत' से
दिखाई देती थी 'चीड़ों पर चाँदनी'
जबकि 'बीच बहस में'
हुआ करती थी दुनिया की 'जलती झाड़ी'
व 'शब्द और स्मृति' पर मँडराते दीख जाते थे
'कव्वे और काला पानी'।
तब
'ढलान से उतरते हुए' हम
अपने ही एकान्त में
तलाश रहे होते थे 'एक चिथड़ा सुख'
ये वे दिन थे
जब 'रात का रिपोर्टर'
'हर बारिश में' सुना करता था
'धुन्ध से उठती धुन'
क्या सचमुच
वे दिन और दिन थे - एक 'दूसरी दुनिया' ?
अब
कोई नहीं कहता कि सुनो 'मेरी प्रिय कहानियां'
अब
'शताब्दी के ढलते वर्षों में'
तय नहीं है
किसी का कोई 'अंतिम अरण्य'
सबके पास सुरक्षित हैं - 'सूखा तथा अन्य कहानियाँ'
अपने - अपने हिस्से के 'तीन एकान्त'
और 'पिछली गर्मियों में' की गईं यात्राओं की थकान।
अब
कलाकृतियों के जख़ीरे में सब है
बस नहीं है तो 'कला का जोखिम'
और न ही कोई 'इतिहास स्मृति आकांक्षा'
यह कोई संसार है
अथवा एक संग्रहालय उजाड़ !
पहाड़ अब भी उतने ही ऊँचे है
हिम अब भी उतना ही धवल
कहीं वाष्प बन उड़ तो नहीं गए निर्मल जल के प्रपात
रात के कोटर से अब भी झाँकता है सूर्य कपोत
परित्यक्त बावड़ी में अब भी खिलती है कँवल पाँत।
घास की नोक पर ठहरी हुई
ओस की एक अकेली बूँद से बतियाते हुए हम
बुदबुदाते हैं - वे दिन , वे दिन
और अपने ही कानों तक
पहुँच नहीं पा रही है कोई आवाज।
7 टिप्पणियां:
निर्मल वर्मा जी को पढना हमेशा ही सुखद लगता है शायद जिन्दगी के करीब से देख कर उसे ज्यूँ का त्यूँ लिखना उनकी कलम से ही हो सका था।ाउर कविता दिल को छू गयी
'ढलान से उतरते हुए' हम
अपने ही एकान्त में
तलाश रहे होते थे 'एक चिथड़ा सुख'
ीऔर
कलाकृतियों के जख़ीरे में सब है
बस नहीं है तो 'कला का जोखिम'
और न ही कोई 'इतिहास स्मृति आकांक्षा'
बहुतरच्छी लगी ये पँक्तियाँ। धन्यवाद्
पूरा कृतित्व स्मरण में आ गया है निर्मल जी का !
"घास की नोक पर ठहरी हुई
ओस की एक अकेली बूँद से बतियाते हुए हम
बुदबुदाते हैं - वे दिन , वे दिन
और अपने ही कानों तक
पहुँच नहीं पा रही है कोई आवाज"
- बेहतरीन ! आभार ।
मेरा भी सुबह सुबह आज मन हुआ कि कोई अच्छी कविता पढ़ी जाए और कम्प्यूटर खोला तो आपका ब्लॉग और आपकी कविता से साक्षात्कार हुआ ।
वे दिन सचमुच सपनो के दिन थे जब निर्मल जी की क्रतियों को पढते हुए उस परिवेश की तलाश किया करते थे। वह रूमानियत बहुत साहस पैदा करती थी ज़िन्दगी मे और ज़िन्दगी का अर्थ भी वही नज़र आता था । निर्मल जी के शिल्प मे एक जादू था ,एक सम्मोहन जो लगातार खींचता था ।
आज आपकी इस कविता को पढते हुए सचमुच वे दिन याद आ गये ।
मेरे मकान की छत सीमेंट की है लेकिन मैने उसे लाल रंग दे रखा है । जब भी किसी को पता बताता हूँ तो कहता हूँ " निर्मल वर्मा के लाल टीन की छत की तरह लाल सीमेंट की एक छत है उसी मकान मे चले आना ..."
शुक्रिया एक अद्भुत कविता देने के वास्ते ......खास तौर से ये पंक्तिया
"ओस की एक अकेली बूँद से बतियाते हुए हम
बुदबुदाते हैं - वे दिन , वे दिन
और अपने ही कानों तक
पहुँच नहीं पा रही है कोई आवाज। "
ओर हाँ शीर्षक के सही इस्तेमाल किया है आपने
निर्मल वर्मा जी मेरे प्रिय रहे हैं, हमेशा से . यह कविता पढ़कर बहुत कुछ मन के पन्नों से उतर कर सामने आ खड़ा हुआ सा लगा . जो जो उनका लिखा हुआ पढ़ा और महसूस किया, सब कुछ .
याद बनने
या याद रेहने
या याद आने
या याद रेह जाने
की भी ताकत होती है,
उन दिनो मे भी और लिखने वालो मे भी,
शायद.... /
:-(
nirmal verma ko thik se samgha jana baki hai. kevel rumaniyat nahin hai.lal teen ki chat ke neeche ki drishya adrishya ghatnaian.ander ki dunia aur bahar ki duniya se sakshatkar.nirmal verma ko dohraya nahin ja sakta.Asikini ke naye ank main kuch baat hui hai.aage badhana zaruri hai.
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