शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

होली : हम - तुम



पाँच छोटी शीर्षकहीन कवितायें
*
गुझिया में
यह जो
भर गई है मिठास
इसका उत्स है
तुम्हारे ही आसपास।

* *
आज से
शुरु हो गया है मेरा अवकाश
आज से बढ़ गया है तुम्हारा काम
आज बहुत देर तक पढ़ता रहा नज़ीर और निज़ार।

याद आता रहा ताज
याद आती रही रेतीले बगूलों की कतार।
तुम्हीं तो हो
जिसके अपनत्व से
उत्सव बन जाता है हर त्योहार।

* * *
भाषा के करघे पर
भले ही शब्दों को कातता रहूँ
महीन और और महीन।

कविता अधूरी ही रहेगी सदैव
अगर उसमें तुम न हो
तुम
जो आज श्रम से हो गई हो श्लथ - श्रीहीन।

* * * *
कहीं नहीं दीखते टेसू
कहीं नहीं नजर आता पलाश।

शब्द में , स्वर में , स्वाद में
तलाश रहा हूँ
खोया हुआ - सा मधुमास।

* * * * *
घर नहीं
यह एक छत्ता है शहद से भरापूरा।

छोटी - छोटी खुशियों के पराग से
भर जाय हर कोष
जिसे वक्त
अक्सर कर दिया करता है अधूरा।
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टिप्पणी :
* नज़ीर और निज़ार = आशय नज़ीर अकबराबादी और निज़ार कब्बानी की कविताओं की किताबें पढ़ने से है।
* * चित्र : बुरूंश या बुराँश ( रोडेडैन्ड्रान) जिसकी आभा से इसी मौसम में दीपित होते हैं अपने हिस्से के पहाड़।

7 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

डॉ. साहिब!
होली का रंग खूब चढ़ा है जी!
3 दिन में इसी तरह की
3 रचना तो होनी ही चाहिएँ!
होली की ढेरों बधाइयाँ!

Udan Tashtari ने कहा…

कहीं नहीं दीखते टेसू
कहीं नहीं नजर आता पलाश।

शब्द में , स्वर में , स्वाद में
तलाश रहा हूँ
खोया हुआ - सा मधुमास।


-बहुत सुन्दर!!!सभी रचनाएँ जबरदस्त!

Kavita Vachaknavee ने कहा…

खूब !!

Chandan Kumar Jha ने कहा…

बिल्कुल कल-कल नदी की तरह बहती हुई कविता । सुन्दर !!!

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

बहुत सुन्दर कविताएँ हैं....बस एक शिकायत - श्रम से कोई श्रीहीन नहीं ... नहीं ... नहीं ...... होता....ज़्यादा सुन्दर हो जाता है.....ऐसी ही सुन्दर भौजी को प्रणाम और आप सबको होली की बधाई.

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

कविताएँ अच्छी हैं,
पर एक बात समझ में नहीं आई -
वही ढाक के तीन पात -
टेसू और पलाश!
न तो चाँद दिखाई देता है
और
न ही चंद्रमा!

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

बहुत दिनों के बाद बुरांश के फूल देखे,
तो मेरा मन खिल उठा गुलाब की तरह!