शनिवार, 14 नवंबर 2009

न भाषा की जरूरत और न ही लिपि की दरकार


आज बाल दिवस है
बच्चों का एक पूरा दिन
आज कुछ लिखना है बच्चों के बारे में
जिसे बड़े पढ़ सकें
कुछ लिखना है बच्चों के लिए
जिसे बच्चे पढ़ सकें।

दुनिया में तरह - तरह की भाषायें हैं
लिपियाँ हजारों - हजार
सुना है रोज मर जाती हैं कुछ भाषायें
रोज गायब हो जाते है कई अक्षर - कई वर्ण।

भाषायें नियत करती हैं पहचान
लिपियों से पहचाने जाते हैं मनुष्य
अभिव्यक्ति के जाने पहचाने शाब्दिक प्रतीक
व्यक्ति और व्यक्ति के बीच
सदैव सेतु नहीं बनते
अक्सर
बन जाते हैं कभी न मिलने वाले नदी के दो पाट।


बच्चों के लिए
बच्चों के बारे में
मैं किस भाषा में लिखूँ दो शब्द
किस लिपि चिह्न में उकेरूँ अपनी बात
जिसे समझ सके
इस पृथ्वी के कोने - कोने में विद्यमान समूचा बचपन
एक वह जो जाता है स्कूल
एक वह भी जो हसरत से देखता है स्कूल को
एक वह जो कंप्यूटर पर पढ़ सकेगा यह सब
एक वह भी
जो कूड़े में तलाश रहा है काम की चीज
इस सिलसिले को
बहुत आगे तक बढ़ाया जा सकता है
और देखा जा सकता है उन्हें भी
जो जन्म से पहले ही पा जाते है मृत्यु का स्पर्श..

आज बाल दिवस है
बच्चों का एक दिन
मैं खोज रहा हूँ कोई नई भाषा
गढ़ रहा हूँ किसी नई लिपि के प्रतीक
जानता हूँ इस काम में मदद करेंगे बच्चे ही
बच्चे ही साफ करेंगे सारा कूड़ा - कबाड़।

खुशी होगी
बच्चे अगर बुहार दें मेरा आलेख
कविताओं को चिन्दी - चिन्दी कर
हवा में उड़ा दें तत्काल
और निकल पड़ें खेलने कोई खेल
आलोचक भकुआए- से देखते रहें यह चमत्कार
जहाँ न भाषा की जरूरत हो और न ही लिपि की दरकार !

* ऊपर लगा चित्र बिलासपुर (छ०ग०) की सजल कुशवाहा ने अपने घर की दीवार पर बनाया है।

3 टिप्‍पणियां:

अर्कजेश ने कहा…

कितना प्‍यारा चित्र बनाया है सजल ने ।


खुशी होगी
बच्चे अगर बुहार दें मेरा आलेख
कविताओं को चिन्दी - चिन्दी कर
हवा में उड़ा दें तत्काल
और निकल पड़ें खेलने कोई खेल
आलोचक भकुआए- से देखते रहें यह चमत्कार
जहाँ न भाषा की जरूरत हो और न ही लिपि की दरकार !


यही है बच्‍चों की भाषा और लिपि दोनों ।

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

सच्चे मन से रची गई
इस सच्ची कविता को
नमन है -
सच्चे मन से!

सागर ने कहा…

बेहतरीन अनुवाद... अनुनाद पर कविता पढ़ी... शुक्रिया... यह कविता भी अच्छी लगी...