चलो अब सो जाओ रे भाई !
असरा - पसरा है सन्नाटा देखो रात अधियाई।
चिड़िया - चरगुन सोय रहे हैं सोयें कुकुर -बिलाई।
पर तुम जाग - जागकर भैया करते कौन कमाई ?
उजले कागज को काला कर लिखते कौन लिखाई ?
जिसको तुम कविता कहते हो वह तो तुकम - तुकाई।
जग है , स्याना मारे , ताना तुमको समझ न आई !
यह सब छोड़ो , माया जोड़ो , सीखो कुछ चतुराई ।
समय बीतने पर ना कहियो , हमने ना समझाई !
सिद्धू बाबू ना सुधरोगे , फिर - फिर यह कविताई !
आधी रात उतार पै आई तुमको नींद न आई !
चलो अब सो जाओ रे भाई !
6 टिप्पणियां:
बहुत खूब
सिद्धेश्वर जी यह सही है लेकिन कितने लोग इसे समझ पायेंगे ? हम कैसे सोयें यहाँ तो कबीर घुसा हुआ है भीतर ..जागे और रोवै .. सो जागते हैं बहर्हाल अभी जागकर तो आप ही को याद कर रहा था ,आपकी एक तस्वीर लगाई है ब्लॉग पर पाबला जी के जन्मदिन के अवसर पर ,देखियेगा -शरद कोकास
बहुत अच्छी रचना .. पर दुनिया उल्टी ही समझें .. जिसे जगना है वो सोता है .. जिसे सोना चाहिए वो जगता है !!
जो सोवत है सो खोवत है ...जागत है सो पावत है..!!
हम भी भईया ना सुधरेंगे, सीखी ना चतुराई ।
खूब..कविताई
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