शनिवार, 29 नवंबर 2008
निरर्थकता के नर्तन पर नतशीश !
वे वहाँ हैं
सुन रहे हैं गोलियों की गर्जना
हम यहाँ हैं
सुन रहे हैं शान्त - सुमधुर संगीत
वे वहाँ हैं
उनके नथुनों में पसर रही है बारूदी गन्ध
हम यहाँ हैं
हमारी आत्मा तक उतरा रहा है रस और स्वाद
वे वहाँ हैं
जीवन के दर्प को दरकते हुए देखते
हम यहाँ हैं
निरर्थकता के नर्तन पर नतशीश.
वे वहाँ हैं
रक्त के राख होते रंग और ताप के चश्मदीद
हम यहाँ हैं
शब्दों को चीरकर कविता जैसा कुछ बनाने में तल्लीन.
उनके और हमारे दरम्यान
उफना रहा है लहू का काला समन्दर
अपने असंख्य विषधर समूहों से मज्जित - सुसज्जित
यदा कदा
यत - तत्र उगते बिलाते दीख रहे हैं उम्मीदों के स्फुलिंग
कविता की यह नन्हीं - सी नाव
हिचकोले खाए जा रही है लगातार -लगातार
जहाँ तक, जिस ठाँव तक जाती जान पड़ती है निगाह
न कोई तट - न कोई किनारा
न ही कूबड़ या घठ्ठे का सादॄश्य रचता कोई द्वीप
अब तो
हाथों में है शताब्दियों से बरती जा चुकी पतवार
और - और -और
मँझधार.. मँझधार.. मंझधार ।
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8 टिप्पणियां:
आतंकियों के मंसूबों को समझिये,
अब शान्ति की नहीं युद्ध की जरूरत है.....
http://kumarendra.blogspot.com
man ki bhavmaon ko pratibimb diya hai is kavita ne par hum laachaar nahin hain hum bhi kuch kar sakte hain...
और - और -और
मँझधार.. मँझधार.. मंझधार ।..ubarnaa to hai!
करें उम्मीद कि इसी मंझधार से
उगेगा उम्मीद का कोई सूरज
खोलेगी आँख जिंदगी फ़िर
फूटेगी नई कोंपल
कविता की।
बहा है जो रक्त
व्यर्थ नहीं जायेगा
और चमकेगा चंदन बन
हमारे माथे पर
अस्तित्व के हर संधर्ष में ।
* आज दुपहर से थोड़ा पहले 'अनुनाद' वाले कवि शिरीष कुमार मौर्य का एस.एम.एस.था कि गोलियों के साथ 'गुंजार' शब्द ठीक नहीं लग रहा है. उनके सुझाव का सम्मान करते हुए यथोचित परिवर्तन कर दिया गया है.
** मन कई दिनों से खिन्न था-वह यहाँ दीख भी रहा है.. कभी-कभी नैराश्य भी अपने चंगुल में लपेटता है किन्तु इससे निकलना ही तो ध्येय होना चाहिए.
*** आप सबने इसे पढ़ने के लिए समय निकाला और अपनी बहुमूल्य सम्मति दी , सो बहुत -बहुत अभार!
relevent hai my dear
vyathit man ki bhavuk abhivyakti.... majhdhar hi mujhe bhi dikh rahe hai.n
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