बुधवार, 26 नवंबर 2008

रोटी हक़ की खाओ , भले ही करनी पड़े बूट पालिश







चुक जाएगा यह तन
काठ हो जाएगी काया
आखिर किस काम की रह जाएगी
जोड़ी - जुगाड़ी धन - दौलत - माया.
काम न आयेंगे
महल - दुमहले कोठी -अटारी
इस दुनिया - ए - फ़ानी में
मुसाफिर है हर शख्स
काल ने तैयार कर रक्खी है सबकी सवारी.
फिर भी
जब तक जियें
तय करें खुद की सीधी - सच्ची राह
ताकि आईने के सामने
नीची न करनी पड़े अपनी निगाह.

अगर ऊपर लिखी पंक्तियाँ कविता कही जा सकती हैं तो यह कविता मुझे एक दूसरी कविता ने लिखवाई है जिसके रचयिता हैं - गुरदास मान. जी हाँ, पंजाबी गायकी को लोकप्रियता की पराकाष्ठा तक पहुँचाने वाले गायक ( और कवि ). मेरा मानना है कि उनकी प्रस्तुतियाँ कविता , संगीत और अभिनय की सजीव त्रिवेणी हैं.

रोटी हक़ की खाओ
भले ही करनी पड़े बूट पालिश
चुक जाएगा यह तन
भले ही रोज करो इसकी मालिश.

आज गुरदास मान के रचे जिस गीत को प्रस्तुत कर रहा हूँ उसकी अर्थवता की तहें खोलने के लिए मैं अपने सहकर्मी मुख्त्यार सिह जी का आभारी हूँ. कामकाज - दफ़्तर - फाइल के बीच उनसे संगीत के बारे में अक्सर बातें होती रहती हैं और पंजाबी संगीत के बोल समझने में वे मदद भी करते हैं. खैर , थोड़ा लिखना , ज्यादा समझना. आइए सुनते हैं गुरदास मान के स्वर में यह चर्चित - बहुश्रुत गीत - 'रोटी हक दी खाइए जी भाँवे बूट पालशाँ करिए...


4 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

बाहुत बडिया लिखा है.

बेनामी ने कहा…

सुन्दर!आपकी पोस्ट पढ़कर धूमिल की कविता मोचीराम याद आ गयी!

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत अच्छी पोस्ट है।बधाई।

एस. बी. सिंह ने कहा…

भाई काफी दिनों बाद गुरुदास मान को सुना, बहुत बढिया पोस्ट ! इकबाल का एक शेर याद आ गया-

ऐ ताइरे-लाहूती उस रिज़्क से मौत अच्छी
जिस रिज़्क से परवाज़ में लानी पड़े कोताही।
धन्यवाद