रविवार, 9 नवंबर 2008

रुको मत समय


रुको मत समय
तुम बहो पानी की तरह
जैसे बह रही है नदी की धार !

प्रेम में पगी हुई यह जीभ
चखना चाहती है रुके हुए समय का स्वाद
आज का यह क्षण
मन महसूस करना चहता है कई शताब्दियों बाद
जी करता है बीज की तरह धंस जाए यह क्षण
भुरभुरी मिट्टी की तह में
और कभी, किसी कालखंड में उगे जब
तो बन जाए एक वृक्ष छतनार
जिसकी छाँह में जुड़ाए
आज का यह संचित प्यार !

रुको मत समय
तुम बहो हवा की तरह
जैसे बह रही है भोर की मद्धिम बयार
और उड़ा ले जाओ इस क्षण की सुगंध का संसार.
रुके हुए समय से
आखिर कब तक चलेगा एकालाप
कब तक अपनी ही धुरी पर थमी रहेगी यह पृथ्वी
आखिर कब तक चलता रहेगा वसंत का मौसम चुपचाप
कब तक आंखें देखती रहेंगी
गुलाब , गुलमुहर और अमलतास
जबकि और भी बहुत कुछ है
अपने इर्दगिर्द - अपने आसपास
कुछ सूखा
कुछ मुरझाया
कुछ टूटा
कुछ उदास !

रुको मत समय
तुम चलो अपनी चाल
अपने पीछे छोड़ते जाओ
कुछ धुंधलाये , कुछ चमकीले निशान
जिन्हें देखते - परखते - पहचानते
उठते - गिरते चलें मेरे एक जोड़ी पाँव
और क्षितिज पर उभरता दिखाई दे
एक बेहतर दुनिया के सपनों का गाँव .

रुको मत समय
तुम बहो पानी की तरह
जैसे बह रहे है नदी की धार
रुको मत समय
तुम बहो हवा की तरह
जैसे बह रही है भोर की मद्धिम बयार !

11 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

अच्छी रचना है.

बैसे नदी बहना बंद कर सकती है, हवा भी बहना बंद कर सकती है, पर समय का बहाव कभी नहीं रुकता. जब मन दुखी होता है तब लगता है जैसे समय ठहर गया है, पर यह एक भ्रम मात्र है.

बेनामी ने कहा…

bahut sundar bhav

Manish Kumar ने कहा…

ये आशावादिता बनाए रखें...

पारुल "पुखराज" ने कहा…

रुको मत समय
तुम चलो अपनी चाल
अपने पीछे छोड़ते जाओ
कुछ धुंधलाये , कुछ चमकीले निशान...bahut acchhi baat..andherey me roshni ki khidki khulti hai kabhi kabhi

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बढ़िया रचना, बधाई.

शोभा ने कहा…

रुको मत समय
तुम बहो पानी की तरह
जैसे बह रही है नदी की धार !

प्रेम में पगी हुई यह जीभ
चखना चाहती है रुके हुए समय का स्वाद
आज का यह क्षण
मन महसूस करना चहता है कई शताब्दियों बाद
जी करता है बीज की तरह धंस जाए यह क्षण
भुरभुरी मिट्टी की तह में
और कभी, किसी कालखंड में उगे जब
तो बन जाए एक वृक्ष छतनार
जिसकी छाँह में जुड़ाए
आज का यह संचित प्यार !
waah! bahut sundar.

सुप्रतिम बनर्जी ने कहा…

बहुत ख़ूब। वैसे कर्मनाशा की कहानी जानकर दुख हुआ। जाने क्यों इस छुटकी सी नदी से एक अजीब सा जुड़ाव सा महसूस करने लगा हूं।

"अर्श" ने कहा…

अपने इर्दगिर्द - अपने आसपास
कुछ सूखा
कुछ मुरझाया
कुछ टूटा
कुछ उदास !

bahot umda padhane ko mila bahot khub.. aap mere blog pe aaye aapka abhari hun ,aapka pyar bana rahe ummid karta hun kuch aur badhiya sher padhwaun...

पुनीत ओमर ने कहा…

अपने आप में संदेश समेटे हुए एक बेहतरीन कविता..

एस. बी. सिंह ने कहा…

रुके हुए समय से
आखिर कब तक चलेगा एकालाप
कब तक अपनी ही धुरी पर थमी रहेगी यह पृथ्वी।

क्या कहने सिद्धेश्वर भाई। लगता है समय ठहर गया है.....इन्ही विचारों के साथ

महेन ने कहा…

ये कविता पढ़वाकर आपने दूसरे ही समय में पहुँचा दिया सिद्धेश्वर भाई।