शनिवार, 1 नवंबर 2008

कागज पर तेरा नाम


एक मचलती दोपहर और इक लरजती शाम।

इस ग़ज़ल में क्यों नहीं है सुबह का पैगाम।

खून में डूबी हुई है हर कलम की नोक,
मैं नहीं लिख पाऊंगा कागज पर तेरा नाम.

4 टिप्‍पणियां:

महेन ने कहा…

दो ही शेर? बाकी कहाँ हैं? मगर दो ही हैवीवेट हैं।

अमिताभ मीत ने कहा…

वाह साहब, क्या बात है. सारे दिन के लिए इतना बहुत है.

पारुल "पुखराज" ने कहा…

khuub!!

Udan Tashtari ने कहा…

गागर में सागर...बहुत बेहतरीन!!