वे वहाँ हैं सुन रहे हैं गोलियों की गर्जना हम यहाँ हैं सुन रहे हैं शान्त - सुमधुर संगीत वे वहाँ हैं उनके नथुनों में पसर रही है बारूदी गन्ध हम यहाँ हैं हमारी आत्मा तक उतरा रहा है रस और स्वाद वे वहाँ हैं जीवन के दर्प को दरकते हुए देखते हम यहाँ हैं निरर्थकता के नर्तन पर नतशीश. वे वहाँ हैं रक्त के राख होते रंग और ताप के चश्मदीद हम यहाँ हैं शब्दों को चीरकर कविता जैसा कुछ बनाने में तल्लीन.
उनके और हमारे दरम्यान उफना रहा है लहू का काला समन्दर अपने असंख्य विषधर समूहों से मज्जित - सुसज्जित यदा कदा यत - तत्र उगते बिलाते दीख रहे हैं उम्मीदों के स्फुलिंग कविता की यह नन्हीं - सी नाव हिचकोले खाए जा रही है लगातार -लगातार जहाँ तक, जिस ठाँव तक जाती जान पड़ती है निगाह न कोई तट - न कोई किनारा न ही कूबड़ या घठ्ठे का सादॄश्य रचता कोई द्वीप अब तो हाथों में है शताब्दियों से बरती जा चुकी पतवार और - और -और मँझधार.. मँझधार.. मंझधार ।
चुक जाएगा यह तन काठ हो जाएगी काया आखिर किस काम की रह जाएगी जोड़ी - जुगाड़ी धन - दौलत - माया. काम न आयेंगे महल - दुमहले कोठी -अटारी इस दुनिया - ए - फ़ानी में मुसाफिर है हर शख्स काल ने तैयार कर रक्खी है सबकी सवारी. फिर भी जब तक जियें तय करें खुद की सीधी - सच्ची राह ताकि आईने के सामने नीची न करनी पड़े अपनी निगाह.
अगर ऊपर लिखी पंक्तियाँ कविता कही जा सकती हैं तो यह कविता मुझे एक दूसरी कविता ने लिखवाई है जिसके रचयिता हैं - गुरदास मान. जी हाँ, पंजाबी गायकी को लोकप्रियता की पराकाष्ठा तक पहुँचाने वाले गायक ( और कवि ). मेरा मानना है कि उनकी प्रस्तुतियाँ कविता , संगीत और अभिनय की सजीव त्रिवेणी हैं.
रोटी हक़ की खाओ भले ही करनी पड़े बूट पालिश चुक जाएगा यह तन भले ही रोज करो इसकी मालिश.
आज गुरदास मान के रचे जिस गीत को प्रस्तुत कर रहा हूँ उसकी अर्थवता की तहें खोलने के लिए मैं अपने सहकर्मी मुख्त्यार सिह जी का आभारी हूँ. कामकाज - दफ़्तर - फाइल के बीच उनसे संगीत के बारे में अक्सर बातें होती रहती हैं और पंजाबी संगीत के बोल समझने में वे मदद भी करते हैं. खैर , थोड़ा लिखना , ज्यादा समझना. आइए सुनते हैं गुरदास मान के स्वर में यह चर्चित - बहुश्रुत गीत - 'रोटी हक दी खाइए जी भाँवे बूट पालशाँ करिए...
पिछले चार - पाँच दिन यात्रा और उत्सव में निवेश हुए - इन्हें 'व्यतीत' कहने का मन नहीं कर रहा है.सबको पता है कि आजकल बाजार मंदा चल रहा है - उतार की ओर. लेकिन इस निवेश में अभी तक कोई घाटा नहीं लग रहा है, सोच - समझ की माटी की उर्वरा तनिक उदित - सी हुई है.प्रकॄति के सुकुमार कवि कहे जाने वाले सुमित्रानंदन की जन्मस्थली कौसानी ( जिला - बागेश्वर , उत्तराखंड) में १४ , १५ और १६ नवम्बर २००८ को संपन्न 'पंत -शैलेश स्मॄति' नामक इस त्रिदिवसीय अयोजन में जो कुछ हुआ उसकी रपट जल्द ही यहाँ दिखाई देगी किन्तु मैंने इसी दौरान वहीं 'कौसानी में सुबह' शीर्षक से एक कविता लिखी जिसके पाँच हिस्से हैं. 'कर्मनाशा' के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं इसके केवल दो टुकड़े -
१.
मुँह अंधेरे कमरे से बाहर हूँ पंडाल में यहीं , कल यहीं जारी था जलसा. अभी तो - सोया है मंच माइक खामोश कुर्सियां बेतरतीब - बेमकसद... तुम्हारी याद से गुनगुना गया है शरीर.
उग रहा है सूर्य के उगने का उजास मंद पड़ता जा रहा है बिजली के लट्टुओं का जादुई खेल ठंड को क्यों दोष दूं भले - से लग रहे हैं उसके नर्म , नुकीले , नन्हें तीर !
२.
कैसे - कैसे करिश्माई कारनामे कर जाता है एक अकेला सूर्य.... किरणों ने कुरेद दिए हैं शिखर बर्फ के बीच से बिखर कर आसमान की तलहटी में उतरा आई है बेहिसाब आग.
कवि होता तो कहता - सोना - स्वर्ण - कंचन - हेम... और भी न जाने कितने बहुमूल्य धातुई पर्याय पर क्या करूं - तुम्हारे एकान्त के स्वर्ण - सरोवर में सद्यस्नात मैं आदिम -अकिंचन...निस्पॄह..निश्शब्द.. क्या इसी तरह का क्या ऐसा ही रहस्यमय रोशनी का - सा होता है राग !
तारीख ठीक से याद नहीं , इतना जरूर याद है कि अक्टूबर या नवम्बर का महीना था. जगह और साल की याद अच्छी तरह से है - गुवाहाटी,१९९२. दशहरा - दुर्गापूजा की उत्सवधर्मिता के उल्लास का अवसान अभी नहीं हुआ था. मौसम के बही - खाते में सर्दियों के आमद की इंदराज दर्ज होने लगी लगी थी और मैं पूजा अवकाश के बाद पूर्वोत्तर के धुर पूरबी इलाके की यात्रा पर था. गुवाहाटी में एक दिन पड़ाव था. पलटन बाजार में यूं ही घूमते - फिरते एक म्यूजिक शाप में घुस गया था. नई जगहों पर, 'नए इलाके में' म्युजिक शाप और बुकशाप का दीख जाना कुछ ऐसा -सा लगता है मानो दुनिया -जहान के गोरखधंधे में सब कुछ लगभग ठीकठाक चल रहा है. अच्छी तरह पता है कि यह अहसास बेमानी है - यथास्थिति से एक तरह का पलायन फिर भी.. खैर, किस्सा - कोताह यह कि उस संगीतशाला से दो कैसेटें खरीदी थी -एक तो टीना टर्नर के अंग्रेजी गानों की और दूसरी हिन्दी -उर्दू सिनेमा की मौसिकी को नई ऊँचाइयां देने वाले नौशाद साहब की पेशकश 'तर्ज़'. यह १९९२ की बात है.तब से अब तक इसे कितनी बार सुना गया है - कोई गिनती नहीं. तब से अब तक ब्रह्मपुत्र में कितना पानी बह चुका है - कोई गिनती नहीं . तब से अब तक भाषा के सवाल को लेकर कितने उबाल आ चुके हैं / आते जा रहे हैं -उन्हें शायद गिना जा सकता है...
पता नहीं क्यों जब भी 'तर्ज़' की गज़लों को सुनता हूँ तो मुझे मेंहदी हसन साहब और शोभा गुर्टू की आवाज में भीगा हुआ गुवाहाटी शहर दिखाई देने लगता है.सराइघाट के पुल से गुजरती हुई रेलगाड़ियों की आवाजें ललित सेन के इशारों पर बजने वाले साजों- वाद्ययंत्रों से बरसने वाली आवाजों की हमकदम -सी लगने लगती हैं. स्मृति की परतों की सीवन शिथिल पड़ने लगती है और एक -एक कर विगत के विस्मयकारी पिटारे का जादू का 'इन्द्रजाल' रचने लगता है. ब्लूहिल ट्रेवेल्स के बस अड्डे की खिड़की पर लगी डा० भूपेन हजारिका की बड़ी -सी मुस्कुराती तस्वीर.. मन में गूँजने लगता है - हइया नां , हइया नां... बुकु होम -होम करे. इस इंसान की आवाज जितनी सुंदर है उससे कई गुना सुंदर इसकी मुसकान है - कुछ विशिष्ट , कु्छ बंकिम मानो कह रही हो कि मुझे सब पता है, रहस्य के हर रेशे को उधेड़कर दोबारा -तिबारा बुन सकता हूं मैं...'एक कली तो पत्तियाँ' . सचमुच हम सब एक कली की दो पत्तियाँ ही तो हैं - एक ही महावॄक्ष की अलग - अलग टहनियों पर पनपने -पलने वाली दो पत्तियाँ- आखिर कहाँ से, किस ओर से , कौन से चोर दरवाजे से आ गया यह अलगाव.. हिन्दी ,अरे नहीं - नही देवनागरी वर्णमाला का बिल्कुल पहला अक्षर - पहला ध्वनि प्रतीक ही तो है यह 'अ' जो उपसर्ग के रूप में जहाँ लग जाता है वहीं स्वीकार - सहकार नकार - इनकार में में बदल जाता है. वैसे कितना हल्का , कितना छोटा - सा है यह 'अ' . क्या हम इसे अलगा -विलगा कर 'अलगाव' को 'लगाव' में नहीं बदल सकते ? बतर्ज 'तर्ज़' मैं जब चाहता हूँ स्मॄति के गलियारे में घूम आता हूँ. बिना टिकट -भाड़ा के , बिना घोड़ा-गाड़ी के चाय बागानों की गंध को नथुनों में भर कर 'ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे -धीरे' की दुनिया में विचरण लेता हूँ. क्या केवल इसीलिए कि इस कैसेट को गुवाहाटी के पलटन बजार की एक दुकान से खरीदा था .या कि पूर्वोत्तर में बिताए सात -आठ साल किताबों और संगीत के सहारे ही कट गए. सोचता हूँ अगर किताबें न होतीं ,संगीत न होता तो आज मैं किस तरह का आदमी होता ? शायद काठ का आदमी !
मित्रो. अगर आपने अभी तक के मेरे एकालाप - प्रलाप को झेल लिया है और 'कुछ आपबीती - कुछ जगबीती' की कदाचित नीरस कहन को अपनी दरियादिली और बड़प्पन से माफ कर दिया है तो यह नाचीज अभी तक जिस 'तर्ज़' का तवील तजकिरा छेड़े हुए हुए था उसी अलबम से गणेश बिहारी 'तर्ज़' के शानदार शब्द, नौशाद साहब के स्वर में 'तर्ज़' की परिचयात्मक भूमिका और उस्ताद मेंहदी हसन साहब की करिश्माई आवाज में उर्दू शायरी की सबसे लुभावनी, लोकरंजक, लोकप्रिय विधा 'ग़ज़ल' के वैविध्य , वैशिष्ट्य और वैचित्र्य का पठन और श्रवण भी अवश्य कर लीजिए -
दुनिया बनी तो हम्दो - सना बन गई ग़ज़ल. उतरा जो नूर नूरे - खुदा बन गई ग़ज़ल.
गूँजा जो नाद ब्रह्म बनी रक्से मेह्रो- माह, ज़र्रे जो थरथराए सदा बन गई गज़ल.
चमकी कहीं जो बर्क़ तो अहसास बन गई, छाई कहीं घटा तो अदा बन गई ग़ज़ल.
आँधी चली तो कहर के साँचे में ढ़ल गई, बादे - सबा चली तो नशा बन गई ग़ज़ल.
हैवां बने तो भूख बनी बेबसी बनी, इंसां बने तो जज्बे वफा बन गई ग़ज़ल.
उठ्ठा जो दर्दे - इश्क तो अश्कों में ढ़ल गई, बेचैनियां बढ़ीं तो दुआ बन गई ग़ज़ल.
जाहिद ने पी तो जामे - पनाह बन के रह गई, रिन्दों ने पी तो जामे - बक़ा बन गई ग़ज़ल.
अर्जे दक़न में जान तो देहली में दिल बनी, और शहरे - लखनऊ में हिना बन गई ग़ज़ल.
दोहे -रुबाई -नज़्म सभी 'तर्ज़' थे मगर, अखलाके - शायरी का खुदा बन गई ग़ज़ल.
स्वर - मेंहदी हसन शब्द - गणेश बिहारी 'तर्ज़' संगीत - ललित सेन
( 'तर्ज़' से ही शोभा गुर्टू जी के स्वर में एक ग़ज़ल किसी और दिन .आज बस इतना ही.आभारी हूँ कि आपने इस प्रस्तुति को पढ़ा -सुना, वैसे इसमें मेरा योगदान है ही क्या ? )
रुको मत समय तुम बहो पानी की तरह जैसे बह रही है नदी की धार !
प्रेम में पगी हुई यह जीभ चखना चाहती है रुके हुए समय का स्वाद आज का यह क्षण मन महसूस करना चहता है कई शताब्दियों बाद जी करता है बीज की तरह धंस जाए यह क्षण भुरभुरी मिट्टी की तह में और कभी, किसी कालखंड में उगे जब तो बन जाए एक वृक्ष छतनार जिसकी छाँह में जुड़ाए आज का यह संचित प्यार !
रुको मत समय तुम बहो हवा की तरह जैसे बह रही है भोर की मद्धिम बयार और उड़ा ले जाओ इस क्षण की सुगंध का संसार. रुके हुए समय से आखिर कब तक चलेगा एकालाप कब तक अपनी ही धुरी पर थमी रहेगी यह पृथ्वी आखिर कब तक चलता रहेगा वसंत का मौसम चुपचाप कब तक आंखें देखती रहेंगी गुलाब , गुलमुहर और अमलतास जबकि और भी बहुत कुछ है अपने इर्दगिर्द - अपने आसपास कुछ सूखा कुछ मुरझाया कुछ टूटा कुछ उदास !
रुको मत समय तुम चलो अपनी चाल अपने पीछे छोड़ते जाओ कुछ धुंधलाये , कुछ चमकीले निशान जिन्हें देखते - परखते - पहचानते उठते - गिरते चलें मेरे एक जोड़ी पाँव और क्षितिज पर उभरता दिखाई दे एक बेहतर दुनिया के सपनों का गाँव .
रुको मत समय तुम बहो पानी की तरह जैसे बह रहे है नदी की धार रुको मत समय तुम बहो हवा की तरह जैसे बह रही है भोर की मद्धिम बयार !
कल एक संयोग के चलते पूरा दिन अपने विश्वविद्यालय में बिताने का मौका मिला. हाँ, उसी जगह जिस जगह अपने दस बरस (मैं केवल वसंत नहीं कहूंगा ,इसमें पतझड़ से लेकर सारे मौसम शामिल हैं) बीते और आज भी स्मॄति का एक बड़ा हिस्सा वहां की यादों से आपूरित - आच्छादित है. यह कोई नई और विलक्षण बात नहीं है. अपनी - अपनी मातॄ संस्थाओं में पहुंचकर सभी को अच्छा -सा , भला-सा लगता होगा. कल हालांकि इतवार था और सब कुछ लगभग बन्द-सा ही था. केवल खुला था तो प्रकॄति का विस्तार और गुजिश्ता पलों का अंबार.मौसम साफ था,धूप खिली हुई थी और नैनीताल के पूरे वजूद पर चढ़ती - बढ़ती हुई सर्दियों की खुनक खुशगवार लग रही थी. दुनियादारी के गोरखधंधे से लुप्तप्राय - सुप्तप्राय मेरे भीतर के 'परिन्दे' इधर से उधर फुदक रहे थे और मन का मॄगशावक कुलांचे भरने में मशगूल था. बहुत सारी बातें /किस्से / 'कहानियां याद-सी आके रह गईं.' -
मन की सोई झील में कोई लहर लेगी जनम ,
छोटा -सा पत्थर उछालें अजनबी के नाम.
जब कयामत आएगी तो मैं बचाना चाहूंगा,
उसकी खुशबू,उसके किस्से,उस परी के नाम.
तब 'वे दिन' बहुत छोटे -छोटे थे और अपने पास बातें बहुत बड़ी -बड़ी थीं. कितनी-कितनी व्यस्तता हुआ करती थी उन दिनों .सुबह पहने जूतों के तस्में रात घिरने पर होस्टल लौटकर ही खुलते थे. कभी यह काम तो कभी वह - और आलम यह कि सब कुछ हो रहा है बस पढ़ाई-लिखाई भी परंतु थीसिस लिखने के काम पर अघोषित विराम -सा लगा है - बहुत कठिन है डगर पी-एच०डी० की. उस वक्त लगता था कि अगर आसपास , इर्द-गिर्द कुछ रंगीन , रेशमी - रेशमी,रूई के फाहे जैसा है तो कुछ ऐसा भी है जिसके रंग बदरंग हो चले हैं , रोयें - रेशे उधड़ रहे हैं और ऐसी 'झीनी -झीनी बीनी चदरिया' को 'मुनासिब कार्रवाई' के जरिए तत्काल एक कामयाब रफूगरी और तुरपाई की सख्त दरकार है-
जबकि और भी बहुत कुछ है
अपने इर्दगिर्द - अपने आसपास
कुछ सूखा
कुछ मुरझाया
कुछ टूटा
कुछ उदास !
खैर, कल याद का अब्र उमड़ा था और बरसा भी और याद आता रहा यह गीत. आप सुनिए -हिन्दी रवीन्द्र संगीत के अलबम 'तुम कैसे ऐसा गीत गाते चलते' से 'वो दिन सुहाना फूल डोर बंधे...' स्वर है सुरेश वाड़कर और ऊषा मंगेशकर का.