सबसे पहले तो इस बात के लिए माफ़ी कि आज सुबह वडाली बंधु के गायन की एक पोस्ट लगाई किन्तु कुछ तकनीकी करणों से उसे तुरंत हटा देना पड़ा. अभी जो कविता प्रस्तुत कर रहा हूं वह काफ़ी पुरानी है तथा अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के २८ जुलाई से ०३ अगस्त १९९१ के अंक में प्रकाशित हुई थी. उस समय (१९८९ - ९० में) अपनी पी-एच.डी. की थीसिस के लिए सामग्री जुटाने सिलसिले में दिल्ली के पुस्तकालयों के खूब चक्कर काटे थे.हर बार यह सोचकर यह जाता था कि महीना भर रहूंगा, पढ़ाई-लिखाई के साथ मौज भी होगी परंतु हर बार हप्ता बीतते-बीतते तन-मन ऐसा उदास, उचाट हो जाता कि 'जैसे उड़ि जहाज को पंछी..' और वापस नैनीताल - पहाड़ों की गोद में जहां सब कुछ छोटा, आसान और सरल होता था. इस छोटेपन में एक तरलता थी जो दिल्ली या उस जैसे अन्य बड़े शहरों में जाकर सूख -सी जाया करती थी. जैसा कि मैंने पहले ही कहा - यह कविता बहुत पुरानी है.इसे दिल्ली में ही वसंत कांटीनेंटल होटल सामने बनी एक सरकारी कालोनी के तिनतल्ले की बालकनी में एक दोस्त के आधी से अधिक गुजर चुकी रात के एकांत में 'अपने पहाड़' को याद करते हुए लिखा था. नैनीताल लौटकर अपने गुरु प्रोफ़ेसर बटरोही जी से इस पर इस्लाह ली और चुपके से सा.हि. के संपादक को भेज दी और वह कुछ महीनों बाद प्रकाशित भी हो गई. ऊपर लगी तस्वीर उसी प्रकाशित कविता की है.
अब जब सब कुछ बदल गया है. कवितायें लिखना अब भी जारी है परंतु छपने-छपाने के सिलसिले में पहले की तरह आलस्य निरंतर बना हुआ है. अब न तो वह दिल्ली है ,न वे पहाड़ हैं न ही अब वह मैं ही हूं ( अब न वो मैं हूं, न तू है न वो माजी है फ़राज) दिल्ली तो कभी अपनी थी ही नही .पहाड़ जरूर अपने थे , आज भी अपने ही हैं -यह अलग बात है कि 'वक्त ने कुछ हंसी सितम ' कर कर दिया है फ़िर भी 'उठ ही जाती है नजर तेरी तरफ़ क्या कीजे'. पता नहीं कविता के साथ इस टिप्पणी की जरूरत थी अथवा नही फिर भी..... तो लीजिए प्रस्तुत है कविता- दिल्ली में खोई हुई लड़की
दिल्ली में खोई हुई लड़की
लड़की शायद खो गई है
'शायद' इसलिए कि
उसे अब भी विश्वास है अपने न खोने का
दिल्ली की असमाप्त सड़कों पर अटकती हुई
वह बुदबुदाती है - 'खोया तो कोई और है !'
आई.एस.बी.टी. पर उतरते ही
उसने कंडक्टर से पूछा था -
'दाज्यू ! मेरे दाज्यू का पता बता दो हो !
सुना है वह किसी अखबार में काम करता है
तीन साल से चिठ्ठी नहीं लिखी
घर नहीं आया
रात मेरे सो जाने पर
ईजा डाड़ मारकर रोती है
और मेरी नींद खुलते ही चुप हो जाती है
दाज्यू ! मेरे दाज्यू का पता बता दो हो !
मैं उसे वापस ले जाने आई हूं.'
कंडक्टर हीरा बल्लभ करगेती
ध्यान से देखता है उस लड़की को
जो अभी-अभी 'अल्मोड़ा - दिल्ली' से उतरी है
'बैणी' वह कहता है - 'बहुत बड़ी है दिल्ली
यह अल्मोड़ा - नैनीताल - रानीखेत - चंपावत नहीं है
जो तुम्हारा ददा कहीं सिगरेट के सुट्टे मरता हुआ मिल जाय .'
लड़की की आंखों में छलक आई
आत्मीयता, अपनत्व और याचना से डर जाता है करगेती
और बताने लगता है -
'दरियागंज, बहादुरशाह जफ़र मार्ग, कनाट प्लेस, शकरपुर...
वहीं से निकलते हैं सारे अखबार
देखो शायद कहीं मिल जाय तुम्हारा ददा
लेकिन तुम लौट ही जाओ तो ठीक ठैरा
यह अल्मोड़ा - नैनीताल - रानीखेत - चंपावत नहीं है .'
लड़की अखबार के दफ़्तरों में दौड़ती है
कहीं नहीं मिलता है उसका भाई, उसका धीरू, उसका धीरज बिष्ट
लेकिन हर जगह - हर तीसरा आदमी
उसे धीरू जैसा ही लगता है
अपने - अपने गांवों से छिटककर
अखबार में उप संपादकी, प्रूफ़रीडरीडिंग या रिपोर्टिंग करता हुआ
लड़की सोचती है - क्यों आते हैं लोग दिल्ली
क्यों नही जाती दिल्ली कभी पहाड़ की तरफ ?
'जाती तो है दिल्ली पहाड़ की तरफ
जब 'सीजन' आता है
तब लग्जरी बसों , कारों, टैक्सियों में पसर कर
दिल्ली जरूर जाती है नैनीताल - मसूरी - रानीखेत - कौसानी
और वहां की हवा खाने के साथ -साथ
तुम्हें भी खा जाना चाहती है - काफल और स्ट्राबेरी की तरह
देखी होगी तुमने
कैमरा झुलाती, बीयर गटकती, घोड़े की पीठ पर उचकती हुई दिल्ली .'
'दैनिक प्रभात' के जोशी जी
लड़की को बताते हैं दिल्ली का इतिहास, भूगोल और नागरिक शास्त्र
समझाते हैं कि लौट जा
तेरे जैसों के लिए नहीं है दिल्ली
हम जैसों के लिए भी नहीं है दिल्ली
फिर भी यहां रहने को अभिशप्त हैं हम
हो सकता है धीरू भी यही अभिशाप...
आगे सुन नहीं पाती है लड़की
चल देती है मंडी हाउस की तरफ भगवानदास रोड पर
सुना है वहीं पर मिलते हैं नाटक करने वाले
धीरू भी तो करता था नाटक में पार्ट
कितने प्यार से दिखाता था कालेज की एलबम -
ओथेलो, बीवियों का मदरसा, तुगलक, पगला घोड़ा, कसाईबाड़ा...
प्रगति मैदान के बस स्टैंड पर
समोसे खाती हुई लड़की
आते - जाते - खड़े लोगों की बातें सुनती है
लेकिन समझ नहीं पाती
लोगों को देखती है लेकिन पहचान नहीं पाती
लड़की लड़कियों को गौर से देखती है -
पीछे से कती हुई स्कर्ट में झांकती टांगें
आजाद हिलती हुई छातियां
बाहर निकल पड़ने को आतुर नितम्ब
शर्म से डूब जान चाहती है लड़की
लेकिन धीरू...ददा, कहां हो तुम !
लड़की सुबह से शाम तक
हर जगह चक्कर काटती है
चिराग दिल्ली से लेकर चांदनी चौक तक
पंजाबी बाग से ओखला - जामिया तक
हर जगह मिल जाते है धीरू जैसे लोग
लेकिन धीरू नहीं मिलता
हर जगह मिल जाते हैं नए लोग
कुछ अच्छे, कुछ आत्मीय
और कुछ सट्ट से चप्पल मार देने लायक
लड़की थक - हारकर पर्स में बचे हुए पैसे गिनती है -
बासठ रुपए साठ पैसे
और चुपचाप आई.एस.बी.टी. आ कर
भवाली डिपो की बस में बैठ जाती है
खिड़की से सिर टिकाते ही
एक बूंद आंसू टपकता है
और बस की दीवार पर एक लकीर बन जाती है
कौन पोंछेगा इस लकीर को -
कोई और लड़की ?
या वर्कशाप का क्लीनर या कि धीरू ??
जाओ लड़की !
यह बस तुम्हें पहाड़ पर पहुंचा देगी
उस पहाड़ पर
जो पर्यटन विभाग के ब्रोशर में में छपे
रंग - बिरंगे, नाचते - गाते पहाड़ से बिल्कुल अलग है
जहां से हर साल, हर रोज
तुम्हारे धीरू जैसे पता नहीं कितने धीरू
दिल्ली आते हैं और खो जाते हैं
लेकिन तुम्हारी तरह
उन्हें खोजने के लिए कोई नहीं आता कभी
कभी - कभार आती हैं तो गलत पते वाली चिठ्ठियां
आते हैं तो पंत, पांडे,जोशी, बिष्ट, मेहरा
जैसे लोगों के हाथ संदेश
लेकिन उन धीरुओं तक
नहीं पहुंच पाती हैं चिठ्ठियां - नहीं पहुंच पाते हैं संदेश
तुम क्यों आई हो ?
क्यों कर रही हो तुम सबसे अलग तरह की बात ??
सुनो दिल्ली
मैं आभार मानता हूं तुम्हारा
तुमने लड़की को ऐसे लोगों से मिलवाया
जिन्हें लोगों में गिनने हुए शर्म नहीं आती
अच्छा किया कि ऐसे लोगों से नहीं मिलवाया
जो उसे या तो मशीन बना देते या फिर लाश
मेरे लड़की अब भी तुम्हारे कब्जे में है
देखो ! उसे सुरक्षित यमुना पर करा दो
उसकी बस धीरे- धीरे तुम्हारी सड़कों पर रेंग रही है
बस की दीवार पर गिरा
उसकी आंख का एक अकेला आंसू
अभी भी गीला है
पहाड़ की परिचित हवा उसे सोख लेने को व्याकुल है ।
7 टिप्पणियां:
जोगेन्द्र सिंह की एक कविता याद आ गई यह कविता पढ़कर:
यह सड़क गबरू के गांव तक जाती थी
जोड़ती थी गांव को शहर से
किसान को
मजदूर बनाने के लिये
कितनी ज़रूरी है यह सड़क।
अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूँ।
अपने खेतों से बिछड़ने की सजा पाता हूँ।
गुलजार का यह शेर याद आ गया।
बहुत अच्छी कविता , साधुवाद।
आ गया सब याद आ गया! अच्छा है पुराना माल खंगाला जा रहा है इन दिनों खटीमे में.
कविता और आपकी टिप्पणी दोनों पठनीय हैं |
बस की दीवार पर गिरा
उसकी आंख का एक अकेला आंसू
अभी भी गीला है
पहाड़ की परिचित हवा उसे सोख लेने को व्याकुल है
dil ko chu gayi aap ki yah rachana
regards
मुंबई में जो बीती रात से हो रहा है उससे मन कुछ उदास था, आपके ब्लॉग पर आकर मन थोड़ा शांत हुआ.
गहरी उतर गई कविता आपकी मन में कहीं |
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