मंगलवार, 1 अप्रैल 2008

देवीधार की 'दीपशिखा' के घर में यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो!

पिछले दिनों 26 मार्च को महदेवी वर्मा (1907-1987) का जन्मदिन था।उनकी स्मृति की छांव में एक बहुत ही सादगी से भरा उल्लेखनीय कार्यक्रम रामगढ़(नैनीताल)के उनके निवास 'मीरा कुटीर'में संपन्न हुआ.यह उनकी जन्मशती वर्ष के संपन्न होने का कार्यक्रम भी था.

यों तो इस तरह का आयोजन हर साल होता है लेकिन इस साल के कार्यक्रम में एक अतिरिक्त सहजता और गरिमा थी जो देश भर से आए साहित्य प्रेमियों की उपस्थिति के कारण लंबे समय तक याद की जाएगी। महदेवी सृजन पीठ,हिन्दी विभाग,कुमाऊं विश्वविद्यालय और महिला समाख्या के इस संयुक्त कार्यक्रम कवि केदारनाथ सिंह ने आधार वक्तव्य में महादेवी के साहित्य के पुनर्पाठ की जरुरत पर बल दिया.कथाकार सुधा अरोड़ा ने उनके शब्दचित्र 'बिट्टो'का पाठ किया.कवि मंगलेश डबराल ने महादेवी के संस्मरण और रेखाचित्रों के नये आयाम खोले.'आधारशिला'(संपादकः दिवाकर भट्ट) के महादेवी वर्मा पर केंदित अंक 'इतिहास में महादेवी' (अतिथि संपादकः बटरोही) का महादेवी के घर में विमोचन इस आयोजन की एक ऐसी घटना है जो बहुत लंबे समय तक याद रहेगी. इस अवसर पर कथाकर विजयमोहन सिंह,दयानंद अनंत,पंकज बिष्ट, क्षितिज शर्मा,कवि वीरेन डंगवाल, जितेन्द्र श्रीवास्तव,अनिल त्रिपाठी,शिरीष कुमार मौर्य,आशुतोष,पल्लव,अनुवादक अशोक पांडे,मधु जोशी,छायाकार कमल जोशी,प्रदेश महिला आयोग की अध्यक्ष राज रावत के साथ बड़ी संख्या प्राध्यापकों,विद्यार्थियों,पत्रकारों और साहित्यप्रेमी जनता की थी.कुमाऊं विश्वविद्यालय के महादेवी सृजन पीठ के निदेशक प्रोफेसर बटरोही,हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर नीरजा टंडन,महिला समाख्या की उत्तराखंड राज्य निदेशक गीता गैरोला और उनकी कर्मठ टीम के कारण यह आयोजन सफल और सार्थक हो सका.

नैनीताल से २५ कि।मी. दूर मल्ला रामगढ़ के देवीधार में महादेवी जी ने 1934 में बदरीनाथ की यात्रा के समय विश्राम किया था और बाद में इसी स्थान पर 'मीरा कुटीर'बनवाया जहां सातवें दशक वे निरंतर आती थीं.यही उनकी कई गद्य और काव्य रचनाओं के अतिरिक्त 'दीपशिखा' की समस्त कवितायें लिखी गई हैं.१९९६ में शासन,स्थानीय जनता और साहित्यकारों के सहयोग से इसे 'महादेवी साहित्य संग्रहालय' का रूप दिया गया.बाद में यह कुछ समय के लिये महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा का विस्तार केन्द्र भी रहा .अब यह कुमाऊं विश्वविद्यालय ,नैनीताल का 'महादेवी सृजन पीठ' है जिसके निदेशक कथाकर प्रोफेसर बटरोही हैं.यह पीठ सृजन और संवाद के सेतु के रूप में विकसित होने का लक्ष्य लेकर चल रही है.इस कड़ी में 'शैलेश मटियानी पुस्तकालय की स्थापना हो चुकी है.इस केन्द्र में राष्ट्रीय स्तर के कई कार्यक्रम हो चुके हैं.पीठ के सुचारू संचालन हेतु कुलपति की अध्यक्षता में एक कार्यकारिणी का गठन किया गया है जिसमें कुलपति और विश्वविद्यालय के अन्य प्राध्यापकों के अतिरिक्त अशोक वाजपेयी,केदारनाथ सिंह,दयानंद अनंत,राजीव लोचन साह जैसे साहित्यकार और पत्रकार हैं.रामगढ में ही मीरा कुटीर से कुछ दूर टैगोर टाप है जहां पर गुरुदेव ने काफ़ी लंबा अरसा अपनी बीमार बेटी के साथ व्यतीत किया था .'गीतांजलि' के कुछ अंश यहीं पर लिखे गये थे. अब वह स्थान खंडहर है,वहां जीवन नहीं वीरानी है,सन्नाटा है.पता नहीं हम लोग अपने साहित्य और उससे संबद्ध धरोहरों को संभालना कब सीखेंगे. 'महादेवी सृजनपीठ के साथ ही अगर टैगोर टाप को भी बचाया-संवारा जा सके तो क्या कहने!

हिन्दी में संस्थाओं के बनने ,बिगड़ने और संवरने का एक लंबा इतिहास रहा है.ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिन्हें इस खेल में मजा आता है; बनाने में भी और बिगाड़ने में भी.इससे अन्य किसी को नफ़ा-नुकसान जो भी होता हो लेकिन कोई शक नहीं है साहित्य की दुनिया से गहरे लगाव वाले लोगों को तकलीफ़ जरूर होती है.आज के इस क्रूर समय में उसे तो तकलीफ़ होनी ही है जो संवेदनशील है,शब्दों की खेती करता है,हर मौसम में शब्दों को सही और सच्चे अर्थों में बचाए रखने की जुगत में लगा रहता है.तरह-तरह की अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं से उबर कर यह संस्था अब इस स्थिति में आ गई है कि कुछ नया किया जा सकता है.इस संस्था के पास अब अच्छा आर्थिक आधार होने के साथ ही अच्छी टीम भी है. इस बार का आयोजन आश्वस्त करता है कि हम सबकी उम्मीद रंग लाएगी.महादेवी वर्मा ने अपने संपूर्ण जीवन में कुछ नया ही तो करना चाहा था,तमाम अवरोधों-विरोधों के बावजूद.आज उनकी स्मृति को ताजा कर हुए एक कविता प्रस्तुत है-

यह मन्दिर का दीप / महादेवी वर्मा

यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो!

रजत शंख-घड़ियाल, स्वर्ण वंशी, वीणा स्वर,
गये आरती बेला को शत-शत लय से भर;
जब था कल-कण्ठों का मेला
विहँसे उपल-तिमिर था खेला
अब मन्दिर में इष्ट अकेला;
इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!

चरणों से चिह्नित अलिन्द की भूमि सुनहली,
प्रणत शिरों को अंक लिये चन्दन की दहली,
झरे सुमन बिखरे अक्षत सित
धूप-अर्घ्य नैवेद्य अपरिमित
तम में सब होगे अन्तर्हित;
सबकी अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो!