गुरुवार, 10 जनवरी 2013

जैसे गुरुत्वाकर्षण को मुंह चिढाते हैं हीलियम से भरे गुब्बारे : अंजू शर्मा

अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी के इस वेब ठिकाने पर 'कवि साथी' क्रम में आज प्रस्तुत हैं युवा कवि अंजू शर्मा की दो कवितायें। अपनी सहज सोच और विशिष्ट कहन की त्वरा से उन्होंने  इधर बीच हिन्दी के कविता संसार में ऐसी उपस्थिति दर्ज की है जिसे लगातार रेखांकित किया जा रहा है। एक कार्यकर्ता के रूप में वह 'डायलाग' , लिखावट’ आदि कई संस्थाओं से जुड़कर दिल्ली की साहित्यिक सक्रियता में शामिल हैं जिसकी अनुगूँज अक्सर दूर तक सुनाई दे जाती है। इसके साथ ही वह एक  ब्लॉगर के रूप में .’कुछ दिल ने कहा’, ‘दिल की बात’ और 'उड़ान अंतर्मन की' जैसे ब्लॉग्स का सफल संचालन करती हैं। हाल ही में अंजू जी को   'इला त्रिवेणी सम्मान २०१२' से सम्मानित किया गया है। आइए , आज पढ़ते हैं उनकी दो कवितायें....


०१- हम नहीं हैं तुम्हारे वंशज 

सोचती हूँ मुक्ति पा ही लूँ
अपने नाम के पीछे लगे इन दो अक्षरों से
जिनका अक्सर स्वागत किया जाता है
माथे पर पड़ी कुछ आड़ी रेखाओं से

जड़ों से उखड़ कर
अलग अलग दिशाओं में
गए मेरे पूर्वज
तिनके तिनके जमा कर
घोंसला ज़माने की जुगत में
कभी नहीं ढो पाए मनु की समझदारी

मेरी रगों में दौड़ता उनका लहू
नहीं बना मेरे लिए
पश्चाताप का कारण
जन्मना तिलक के वाहक
त्रिशंकु से लटकते रहे वर्णों के मध्य
समय समय पर
तराजू और तलवार को थामते
वे अक्सर बदलते रहे
ब्रह्मा के अस्पर्श्य पाँव में

सदा मनु की विरासत नकारते हुए
वे नहीं तय कर पाए
जन्म और कर्म के बीच की दूरी का
अवांछित सफ़र
कर्म से कबीर और रैदास बने
मेरे परिजनों के लिए
क्षीण होती तिलक की लालिमा या
फीके पड़ते जनेऊ का रंग
नहीं छू पाए चिंता के वाजिब स्तर को

हाशिये पर गए जनेऊ और शिखा
नहीं कर पाए कभी
दो जून की रोजी का प्रबंध,
क्योंकि वर्णों की चक्की से
नहीं निकलता है
जून भर अनाज
निकलती है तो
केवल लानतें
शर्म से झुके सर
बेवजह हताशा और
अवसाद

बोझ बनते प्रतीक चिन्हों को
नकारते और
अनकिये कृत्यों का परिणाम भोगते
केवल और केवल कर्मों पर आधारित
उनके कल और आज ने
सदा ही प्रतिध्वनित किया
हमें बक्श दो मनु, हम नहीं हैं तुम्हारे वंशज ....

**
०२- कामना

हमारे रिश्ते के बीच
ऊब की धुंध में डूबते तमाम पुल
टूट जाने से पहले
खो जाना चाहती हूँ मंझधार में
शायद
कभी कभी डूबना
पार लगने से कहीं ज्यादा
पुरसुकून होता है

बेपरवाह गुजरने की ख्वाहिश
ऊँगली थामे है
उन सभी पुरखतर रास्तों पर
जहाँ लगे होते हैं साईनबोर्ड निषेध के
जंग खाए परों को तौलकर
भर लेना चाहती हूँ एक दुस्साहसी उड़ान
आसमान के अंतिम छोर तक
हंसकर, झटकते हुए सर को,
ठीक वैसे ही
जैसे गुरुत्वाकर्षण को मुंह चिढाते हैं
हीलियम से भरे गुब्बारे

यूँ जानती हूँ कि
हर भटकते कदम के इर्द गिर्द
लम्बवत पड़ी होती हैं आचार-सहितायें
ये भी कि
हर मनभावन रास्ता नहीं जाता है
तयशुदा मंजिल को
ये भी कि हर तयशुदा रास्ते के
इर्द-गिर्द नहीं उगते हैं
जंगली कामनाओं के पेड

किन्तु टूटकर प्यार करने
और दीवानावार हो
मजनू हो जाने वाली
तमाम आदिम इच्छाओं के बोझिल पाँव
कभी कभी झटकना चाहते हैं
संकोच और जन्मजात संस्कार की बेड़ियाँ,

ता-उम्र नाक की सीध में चलते
हर सतर राजपथ से ऊबकर
उम्र की इस दोपहर में
बो देना चाहती हूँ हम दोनों के बीच
सालों पहले जिए अजनबीपन और रोमांच के बीज
कुछ देर फिर से उसी हाथ को थामकर
भूल जाना चाहती हूँ हर रास्ता
हटा लेना चाहती हूँ नज़रें तयशुदा मंजिल से,
दौड़ना चाहती हूँ बेसाख्ता पथरीले रास्तों पर
शाम के धुंधलके में खोने से ठीक पहले
आज मैं प्यार में पागल होना चाहती हूँ....

9 टिप्‍पणियां:

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बोझ बनते प्रतीक चिन्हों को
नकारते और
अनकिये कृत्यों का परिणाम भोगते
केवल और केवल कर्मों पर आधारित
उनके कल और आज ने
सदा ही प्रतिध्वनित किया
हमें बक्श दो मनु, हम नहीं हैं तुम्हारे वंशज ....

पहली कविता की यह अंतिम लाइनें बहुत अच्छी लगीं। दूसरी कविता भी अपने आप में व्यापकअर्थ समेटे हुए है।

सादर

Aharnishsagar ने कहा…

अंजू जी को अपने फेसबुक के शरुआति दिनों से पढ़ रहा हूँ ..और हर बार इनके काव्य बाणों को प्रखर और मनुष्य चेतना में गहरे धसते पाया हैं... उपरोक्त दोनों कविताएँ स्त्री-चेतना के भीतर दमित आजादी की कामना का मुखर आख्यान हैं... सामंती सोच का पर्दाफास करती ये कविताएँ एक सराहनीय प्रयास हैं और कवयित्री की परिपक्वता को भी दर्शाती हैं ... ढेरो शुभकामनाएं और बधाई

arun dev ने कहा…

पहली कविता में अंतर्द्वद्व ठीक से अभिव्यक्त हो पाया है. प्रदत्त पहचान से बाहर निकलकर मानुष भाव को पाने की उत्कट इच्छा इस कविता का उपजीव्य है. अस्मिता के रेखांकन के इस दौर में अस्मिता विलोपन की यह उद्दात्त इच्छा के गहरे अर्थ हैं बधाई.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

व्यक्त अब अवसाद पूरा..

आशुतोष कुमार ने कहा…

ता-उम्र नाक की सीध में चलते
हर सतर राजपथ से ऊबकर
उम्र की इस दोपहर में
बो देना चाहती हूँ हम दोनों के बीच
सालों पहले जिए अजनबीपन और रोमांच के बीज
कुछ देर फिर से उसी हाथ को थामकर
भूल जाना चाहती हूँ हर रास्ता
हटा लेना चाहती हूँ नज़रें तयशुदा मंजिल से,
दौड़ना चाहती हूँ बेसाख्ता पथरीले रास्तों पर
शाम के धुंधलके में खोने से ठीक पहले
आज मैं प्यार में पागल होना चाहती हूँ....

ईमानदार, बेबाक, मार्मिक. (यही तीन शब्द पहली कविता के लिए भी.)

आनंद ने कहा…

साहित्य और समाज के ज्वलंत प्रश्नों से सदा लड़ती हुई अंजू शर्मा जी समकालीन कविता की सशक्त हस्ताक्षर है , उनकी कवितों में आपको निज और समाज दोनों की बेहतर उपस्थिति बराबर देखने को मिलेगी |
इन सुंदर कविताओं को पढवाने के लिये 'कर्मनाशा' के प्रति आभार !

रामजी तिवारी ने कहा…

इन कविताओं में हम सबकी आवाज भी शामिल हैं ...अच्छा लगता है , जब कवितायें अपने समय और समाज से टकराती हैं , आपने यह साहस दिखाया है , इसके लिए बधाई ..|

अरुण अवध ने कहा…

पहली कविता जहाँ जातीय अस्मिता की बोझिलता से सामान्य जीवन को निकालने का संघर्ष है वहीँ दूसरी कविता प्रेम की सहजता और उसके उन्मुक्त रोमांच के प्रति मन की ललक को सुन्दरता से स्थापित करती है |कर्मनाशा को इन सुन्दर कविताओं के लिए बधाई और अंजू शर्मा को हादिक शुभकामनाएं !

अपर्णा मनोज ने कहा…

अंजू विलम्ब हुआ,पर तसल्ली से पढ़ीं आज कविताएँ .अच्छी कविताएँ दे रही हो तुम।और अधिक उम्मीद के साथ ...