इसी संसार में एक बनता हुआ प्रतिसंसार है। कभी - कभी लगता है कि इसे 'बनता हुआ' कहना कहीं खुद को 'बनाना' तो नहीं है ; एक मुहावरे का वाक्य प्रयोग करते हुए स्वयं को भुलावे में रखने जैसा कुछ तो नहीं? अपने आसपास देखता हूँ तो पाता हूँ कि नेट ने कुछ लोगों के लिए एक ऐसा प्रतिसंसार रच दिया है जो हमारे रोजमर्रा के संसार को दूर से देखने का विधान निर्मित करने के उपक्रम में सतत संलग्न है। आज प्रस्तुत हैं इसी नेट प्रसंग पर कुछ कथायें, संवाद की शक्ल में....
प्रतिसंसार में कुछ सांसारिक संवाद
01: मिलन
- सुनो , कुछ बात करते हैं।
- यहाँ ? आमने - सामने?
- तो फिर..!
- घर पहुँचकर बात करते हैं न नेट पर।
- अभी बस्स चुप रहो और बात करो।
- किया।
- क्या?
- बात , सुना नहीं क्या?
- नहीं।
- तो फिर भाड़ में जाओ।
- गया।
- कहाँ?
- भाड़ में , देखा नहीं क्या?
- नहीं।
- तो क्या करें?
- मिलते हैं न नेट पर।
02 : साझेदारी
- कल मैंने कुछ शेयर किया था।
- क्या?
- दु:ख।
- किसका?
- अपना।
- किससे?
- खुद से।
- कहाँ?
- नेट पर।
03 : मित्रता
- हजार से ऊपर हैं मेरे मित्रों की संख्या
- नेट पर न ?
- हाँ।
- और नेट से बाहर?
- ........
- मुझसे दोस्ती करोगे?
- यह किसी फ़िल्म का नाम है। मैंने देखी थी शायद।
- मुझसे दोस्ती करोगे?
- हाँ, नेट पर।
- और नेट से बाहर?
- .....यह बताउंगा , नेट पर।
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(चित्र : जॉर्डन इसिप की पेंटिंग 'लांग शाट' / गूगल छवि से साभार)
3 टिप्पणियां:
एक भौतिक, एक अभौतिक, एक आध्यात्मिक..
- सुनो , कुछ बात करते हैं।
- यहाँ ? आमने - सामने?
- तो फिर..!
- घर पहुँचकर बात करते हैं न नेट पर।
बहुत उम्दा कथा.ये 140 वर्णॊं में कथा कहने वालों के लिये अच्छा उदाहरण हैं
आपकी कविता से एक आलेख घुमड़ने लगा है मन मष्तिष्क में अगर आदेश हो तो क्या आपकी कविता साभार कॉपी कर सकता हूँ?
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