बहुत दिन हुए ब्लॉग पर कुछ लिखा नहीं , कुछ नया साझा नहीं किया। ऐसा क्यों भला! २८ मई को एक कान्फ्रेंस में दो दिन के लिए दिल्ली जाने से ठीक पहले कुछ कवितानुमा लिखा था और यूँ ही मौज में पोस्ट कर दिया था। दिल्ली में दिल्ली की चर्चित गर्मी झेली , बहुत दिन बाद मिले मित्रों - आत्मीयजन की गर्मजोशी को जज्ब किया ,पूसा के भव्य - कृत्रिम सुशीतल सभागार में अपना पर्चा पढ़ा, सुस्वादु व्यंजनों का आनंद लिया और घर वापस..। यह काम के बीच चुराया हुआ कार्यावकाश था। लौटकर फिर वही काम। फिर वही व्यस्त सुबह - दोपहर शाम। एक तरह से अप्रेल के क्रूअलेस्ट मंथ का विस्तार। लेकिन काम तो काम है उससे कोई शिकायत नहीं। रात जल्दी सोना..क्योंकि सुबह जल्दी उठना है। इस बीच गर्मी ने अपना प्रचंड रूप दिखाया है और बिजली के आने जाने की अब भी अपनी ही माया है। बच्चों की छुट्टियाँ...उनके स्कूल का काम भी लगभग पूरा और और अपन को मौका नहीं।लिखना - पढ़ना भी सब ठप्प। किसी तरह इतवार को मिलाकर पाँच दिन क्के अवकाश का प्रयत्न किया और अपन सब उड़ चले पहाड़ों की ओर। पत्रिकाओं के यात्रा विशेषांक पढ़कर बेटे अंचल जी ने जो जगहें चुनी थी वे कुछ ऑनलाइन बुकिंग व्यवस्था और घरेलू विचार विमिमय के बाद बदल गईं। तय था कि सुबह पाँच बजे चलेंगे लेकिन कुछ ऐसा काम आन पड़ा कि निर्धरित समय सारणी सब ध्वस्त....अंतत: साढ़े दस बजे निकलना संभव हुआ....
यह यात्रा सुखद रही , सुन्दर और सहज भी। चलने पहले ही तय था कि साथ में लैपटाप और इंटरनेट संयोजन यंत्रादि नहीं होगे। हाँ एकाध किताबें हो सकती हैं; बस्स हम होंगे , प्रकृति होगी , पहाड़ होंगे। इस बात पर अमल हुआ और उद्देश्य सफल हुआ। सिलसिलेवार या बेतरतीब तरीके से इस यात्रा पर कुछ लिखना जरूर है....आज और अभी तो बस कुछ तस्वीरें.....
अपने पहाड़
चौकोड़ी
थल में अविरल
बिर्थी : पत्थर और पानी
टी०आर०एच० मुन्स्यारी
आधे संसार के कैमरे से मुन्स्यार
9 टिप्पणियां:
सुंदर फोटोग्राफी।
एक दर्द का अहसास कराते उजड़ते पहाड़
मगर फिर भी आकर्षित करते पहाड़ -
अंचल जी का शुक्रिया, देता शुभ आशीष ।
पर्वत घाटी नदी सर, इस अंचल के ईश ।
इस अंचल के ईश, चित्र बेहद खुबसूरत ।
यह आधा संसार, प्यार से भैया *घूरत ।
*घूमना
चौकोड़ी के मोड़, बहे पत्थर में पानी ।
शांत सुरम्य स्थान, हुई दुनिया दीवानी ,
आप तो पहाड़ों की सैर कर आये!
चित्र देखकर हमें भी गर्मी में शीतलता का आभास हो रहा है!
पहाड़, शीतलता और सौन्दर्य..
बेहतरीन प्रस्तुति।
bahut badhiya!
सुन्दर चित्र
यहाँ से जल बहता है !
उस के साथ मिट्टी बहती है !
उतरती हैं ऊँचाईयाँ
भरती जाती हैं गहराईयाँ
समतल होना चाहती पृथ्वी ....
तुम्हारी इस चाहत पर लट्टू हूँ
ओ पृथ्वी !
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