रविवार, 8 जुलाई 2012

राज़ खुलते हैं हैं बारिश में पर्त दर पर्त

इस बीच कितने - कितने काम रहे। अब भी हैं। लिखत - पढ़त की कई चीजें पूरी करनी हैं। वह सब आधी - अधूरी पड़ी हैं। पहाड़ की यात्रा से लौटकर खूब - खूब गर्मी झेली । इतनी गर्मी कि जिसकी उम्मीद तक  नहीं थी। बारिश  के  वास्ते  तन - मन  बेतरह तरसता - कलपता रहा। ऐसी  ही तपन व उमस में ०२ जुलाई  को  कविताओं में डूबते - उतराते  लैंगस्टन ह्यूज की  एक छोटी - सी कविता 'अप्रेल की बारिश का गीत' का अनुवाद कर उसे फेसबुक पर  कविता  प्रेमियों के संग साझा करते हुए बस  एक  दुआ की थी कि  'आए बारिश' ....

अप्रेल की बारिश का गीत
( लैंगस्टन ह्यूज की कविता)                 

आए बारिश और सहसा चूम ले तुम्हें
आए बारिश और तुम्हारे शीश पर
दस्तक दें चाँदी की तरल बूँदें।

आए बारिश और गाए तुम्हारे लिए लोरी
आए बारिश और रास्तों पर निर्मित कर दे
ठहरे हुए जलकुंड
आए बारिश और नाबदानों में बहा दे
सतत प्रवहमान सरोवर
आए बारिश और हमारी छत पर
गाए निद्रा का अविरल गान।

और क्या कहूँ !
प्यार है मुझे बारिश से।
--
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)



....और बारिश आई ..अच्छी बारिश आई। धरती की प्यास  कुछ बुझी , तपन कम हुई और यह भी हुआ कि  इसी दौरान अपने घर को बिजली मुहैया करवाने वाला सर्विस वायर उड़ गया उसने भी बारिश का आनंद ले लिया  और  दिन भर की मशक्कत के बाद  ही वह नया - नवेला होकर जुड़ सका। यह  सब हुआ तो पता चला कि टेलीफोन  जी 'डेड'  पड़े हैं.. अहर्निश स्पंदित रहने वाला यंत्र  स्पंदनहीन हो गया है। आज  शाम को पाँच दिनों के बाद  वह पुन: 'जीवित' हुआ है। अभी कुछ देर पहले  फेसबुक पर यूँ ही एक शेर लिखकर साझा किया था : 'बिजली गई बारिश आने को है /राग मल्हार पानी गाने को है'। यह लिखने के बाद लगा कि इसे  तो  थोड़ी - सी तुकमिलाई के बाद एक  ठीकठाक ग़ज़ल की शक्ल  जैसी दी जा सकती है और वह कुछ  देर बार यूँ बनी..  अब जैसी भी बनी है ...आइए साझा करते हैं..और बारिश की राह देखते हुए सो जाते हैं....

इस बारिश में

गई बिजली , बरसात भी बस आने को है।
बरसता पानी अब मल्हार छेड़ जाने को है।

छत पर टपकेंगी बूँदे ,रात भर रुक कर
कोई है जो  आमादा कुछ सुनाने को है।

याद आएगी अपने साथ कई याद लिए
इक घनेरी - सी घटा टूटकर छाने को है।

नींद को नींद कहाँ  आएगी आज रात
सिलसिला  बेवजह जागने जगाने को है।

मैंने जो कुछ भी कहा शायरी नहीं शायद
बात बस खुद से बोलने बतियाने को है।

राज़ खुलते हैं हैं बारिश में पर्त दर पर्त
नुमायां होता है वह भी जो छिपाने को है।
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“I always like walking in the rain, so no one can see me crying.” 
― Charles Chaplin
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( चित्रकृति : करेन राइस  / गूगल से साभार )

9 टिप्‍पणियां:

अनुपमा पाठक ने कहा…

लैंगस्टन ह्यूज की कविता का सुन्दर अनुवाद!

बारिश ने बोलते बतियाते आपसे जो रचवाया वह भी बहुत सुन्दर है!
'राज़ खुलते हैं हैं बारिश में पर्त दर पर्त
नुमायां होता है वह भी जो छिपाने को है।'
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वाह!

Arvind Mishra ने कहा…

बारिश के बोध! ग़ज़ल कहाँ कभी खुद से कही जाती है -कोई तो होगा जो बारिश में बेसाख्ता याद आया होगा :-)

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

करेन राइस की कलाकृति सबसे सुंदर लगी।

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

अनुवाद और आपकी अपनी कविता दोनों सुन्दर है ...

Nidhi ने कहा…

दोनों ही चीज़ें अच्छी हैं.

Pratibha Katiyar ने कहा…

“I always like walking in the rain, so no one can see me crying.”
― Charles Chaplin

Beautiful1!

Onkar ने कहा…

अनुवाद और मौलिक कविता- दोनों का जवाब नहीं.

Onkar ने कहा…

सुन्दर कविता

संतोष त्रिवेदी ने कहा…

वाह...।