मई का महीना अप्रेल के क्रूर विस्तार को सहज विस्तारित करते हुए लगभग मारक चल रहा है - खूब सारा काम और खूब सारी यात्रायें। इस बीच दो नदियों गंगा और कर्मनाशा के इलाके से लू और तपन के जबरदस्त थपेड़े खाकर लौटा हूँ। लगता है कि वहाँ आसमान से आग बरस रही है। उसके मुकाबिल यहाँ अपने हाल मुकाम हिमालय की तलहटी में तापमान अपेक्षाकृत सुखकर है। पारिवारिक वैवाहिक आयोजनों की यात्रा से लौटकर बहुत सारी चीजों को याद कर रहा हूँ। इनमें से एक आलता भी है। आलता जिसे महावर भी कहा जाता है। अभी भी यह मेरे पैरों की उंगलियों और नाखूनों पर वह विद्यमान है। कल जब बहुत दिनों बाद संडल पहना तो एक सहकर्मी ने इस बाबत पूछा कि यह क्या है? फिर कई बातें निकल पड़ीं : शादी - ब्याह से लेकर पूजा - पाठ तक और 'गोड़' रंगने वाली नाउन के नेग तक। यह भी बात चली कि अब बढ़िया आलता बाजार में नहीं मिलता; पुड़िया वाला रंग घोलकर ही काम चलाया जाता है, और यह भी कि शायद किसी बंगाली बिसाती की दुकान पर ठीकठाक आलता मिल जाय। अब जो भी हो 'आलता' शीर्षक से एक कविता कुछ महीने पहले लिखी थी। वह कल के आलता - प्रसंग में आज खोजी गई और इस वक्त सबके साथ साझा की जा रही है। आइए इसे देखें पढ़े..
इसे महावर कहूँ
या महज चटख सुर्ख रंग
उगते - डूबते सूरज की आभा
वसंत का मानवीकरण
या कुछ और।
खँगाल डालूँ शब्दकोश का एक - एक पृष्ठ
भाषा विज्ञानियों के सत्संग में
शमिल हो सुनूँ
इसके विस्तार और विचलन की कथा के कई अध्याय
क्या फर्क़ पड़ता है !
फर्क़ पड़ता है
इससे
और..और दीपित हो जाते हैं तुम्हारे पाँव
इससे सार्थक होती है संज्ञा
विशिष्ट हो जाता है विशेषण
पृथ्वी के सादे कागज पर
स्वत: प्रकाशित होने को
अधीर होती जाती है तुम्हारी पदचाप।
आलता से याद आती हैं कुछ चीजें
कुछ जगहें
कुछ लोग
कुछ स्वप्न
कुछ लगभग भुला से दिए गए दिन
और कुछ - कुछ अपने होने के भीतर का होना।
फर्क़ पड़ता है
आलता से और सुंदर होते हैं तुम्हारे पाँव
और दिन - ब- दिन
बदरंग होती जाती दुनिया का
मैं एक रहवासी
खुद से ही चुराता फिरता हूँ अपनी आँख।
यह किसी मुहावरे का वाक्य प्रयोग नहीं है प्रिय
न ही किसी वाक्यांश के लिए एक शब्द
न ही किसी शब्द का अनुलोम - विलोम
कोई सकर्मक - अकर्मक क्रिया भी नहीं।
क्या फर्क़ पड़ता है
इसी क्रम में अगर यह कहूँ -
तुम हो बस तुम
आलता रचे अपने पाँवों से
प्रेम की इबारत लिखती हुई
लेकिन यह मैं नहीं
यह आलता सिर्फ़ आलता भी नहीं
और हाँ , यह सब कुछ संभवत: कविता भी नहीं।
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6 टिप्पणियां:
'यह आलता सिर्फ़ आलता भी नहीं'
सचमुच! यह तो है कवि हृदय की सूक्ष्म दृष्टि का सहज प्राकट्य...
भावों को खूब लिख गयी यह कविता...!
याद आ गया आलता और उससे जुड़े कितने ही भाव!
खूबसूरत कविता है- आलता लगे पांव सरीखी। :)
बढ़िया भाव भाई साहब |
बधाई ||
लगा आलता पैर में, बना महावर लाख |
मार आलथी पालथी, सेंके आशिक आँख |
सेंके आशिक आँख, पाख पूरा यह बीता |
शादी की यह भीड़, पाय ना सका सुबीता |
बिगड़े हैं हालात, प्रिये पद-चाप सालता |
आओ फिर चुपचाप, तनिक दूँ लगा आलता ||
बहुत नाज़ुक सी कविता ...
सादर.
वाह ....बेहतरीन भाव संयोजित किये हैं आपने ...
आलता पर लिखी रचना का जवाब नहीं सर!
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