रेशम के कीड़े शाल में छुपे रहते हैं
धैर्य से टूटते रहते हैं
गेहूं के अंदर ही है घुन
मटर की आज्ञा है कि उसे सुंडिया खा जाएँ
मोनिका कुमार की कवितायें
01.
विराट का मेरा प्रथम अनुभव है
तरबूज़ देखना
मैं अंदाजन कह पाती हूँ
कितना है प्यार तुमसे
हाथ भर
समन्दर जैसे
ज़रा भी नहीं
अंदाज़ा नहीं रहता
तरबूज़ देखते हुए
कितना होगा गुदगुदा
लाल
और कैसे सजी होंगी ढेरों आँखें समाधि में
तुम जिद्द पर अड़े रहे
धरती है संतरे सी गोल
नहीं माना तुमने
यह हो सकती है तरबूज सी
खैर !
मैंने झूठ कहा तुमसे
अंदाजन कह पाती हूँ
कितना है प्यार तुमसे
सारे अनुमान मेरी भाषा की नाकामी हैं
मुझे चाहिए कुछ विस्मयादिबोधक
उन्माद वाहक
जो करते हैं नाकामियों का
विनम्र अनुवाद
02.
दिन का चढ़ा आधी रात तक उतरता है
अहिस्ता उतरती है रात दिन की सीढ़ियों से
और गुज़रा हुआ दिन टूटे हुए फूल की तरह
बिछ जाता है
इसी पहर उस फूल को किताब में रख के
आईने की तरह पढ़ती हूँ
रात दिन को विस्मृत करती है
दिन रात को रहने नहीं देता
दोपहर की अलसाई नींद
खुलते ही अवसाद करती है
जैसे नींद रात की धरोहर हो
जिसे दिन में लूट लिया जाये
दिन जैसा कुछ भी करना रात के एकांत को कष्ट देता है
रात में लिखी चिठ्ठी पढ़तुम को रात ही में पढ़नी चाहिए
लेकिन फिर भी चिठ्ठी खुलती है सिखर दोपहर
और पढ़तुम को ठीक समझ आती है
कवियों को लिखने चाहिए अपने राग के समय
कविता के भीतर जो बारिश है
उस में भीगने के लिए कब हाथ उठाने चाहिए
फिर भी कभी आप दिन में झुलस रहे हों
तो किसी बारिश सी कविता को याद किया कीजे
दिन और रात की संसृति में
मनचाहा मौसम है
जिन्हें आती है यह जादुगरियां
वह दिन में भी अपनी हर सांस सुनते हैं
और रात में दोपहर-खिड़ी से खिलते हैं
03.
वृत का अर्धव्यास तय कर रहा है
वृत के फैलने की सीमा
केंद्र से हर बिंदु उतना ही दूर सुदूर
तुम्हारा एक पांव कम्पास की सुई है
जो दुसरे पांव के गिर्द घेरे बुनता है
सुई गोंद्ती रहती है हर वक़्त ज़मीन को
तुम फिसलते हो इस गोलाई से बाहर जाने के लिए
और तुरंत उठ खड़े हो जाते हो फैसला बदलकर
तुम्हारी बाजुएँ आकाश नापती है
और पांव धरती
तुम्हारे और अनगिनित दायरे हैं
इसीलिए मैं सबसे पहले तुम्हारे पांव चूमती हूँ
तुम्हारी बाजुएँ अब तक कितना नाप चुकी ?
तुम्हारे नाखून थक गये हैं
इनकी सख्ती बेवजह तो नहीं
इनका टूट जाना दुःख है
तुम्हारे पोरों की छतरी हैं यह नाखून
मुझे इनसे बेहद प्यार है
तुम्हे जो शब्द भाता है
उसे नाखून में छुपा लेते हो
लिखते हो तो वोह शब्द बहने लगते हैं
दिल से साहस रिसता है संग संग
नाखून टूटना दुःख है
तुम्हारे नाखून तुम्हारी यात्रा के स्तम्भ है
इनकी सख्ती तुम्हारे सबसे करीब शब्दों का कवच है
तुम्हारे नाखून तुम्हारे दिल से भी कोमल हैं
अपने पांव से कह दो के धरती अहिस्ता नापे
और बाजुएँ ध्यान से आकाश घेरें
मुझे तुम्हारे नाखूनों से बेहद प्यार है
04.
तुम विराट के प्रेमी
मैं डिबिया की दीवानी
तुम नौका विहारी
मैं अपने लम्बे केशों से परेशान
तुम बनों के देवता
मैं आंगन की बेल
तुम ऋतूओं के सैलानी
मैं अक्षय कार्तिक की प्रभात
तुम इन्दधनुष धनी
मुझे पायल की दरकार
तुम ख्वाब का सौन्दर्य हो
मैं नियति की हरारत
मुझे देखा तुमने
और देखे नाचते हुए मोर
मैंने देखा तुम्हे
और प्रेम बिच्छुआ
----
* (चित्र कृति : पेट मैग्युकिन की पेंटिंग, साभार)
धैर्य से टूटते रहते हैं
गेहूं के अंदर ही है घुन
मटर की आज्ञा है कि उसे सुंडिया खा जाएँ
आज प्रस्तुत हैं मोनिका कुमार की चार कवितायें। मोनिका जी चंडीगढ़ में रहती हैं। सेक्टर 11 अवस्थित राजकीय कालेज के अंग्रेजी विभाग में सहायक प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। वह विश्व साहित्य की गंभीर अध्येता व अध्यापक हैं , कविता प्रेमी हैं , अनुवादक हैं , कवि हैं। उनकी कविताओं ने इधर कई जगहों पर अपने टटकेपन , अंतर्वस्तु की वैविध्यता, अपनी - सी कहन और अपने देश - काल की खालिस भाषिक रंगत की सहज प्रस्तुति के कारण ध्यान आकृष्ट किया है । आइए, हम भी इन कविताओं के साथ - साथ एक यात्रा करते हैं...
01.
विराट का मेरा प्रथम अनुभव है
तरबूज़ देखना
मैं अंदाजन कह पाती हूँ
कितना है प्यार तुमसे
हाथ भर
समन्दर जैसे
ज़रा भी नहीं
अंदाज़ा नहीं रहता
तरबूज़ देखते हुए
कितना होगा गुदगुदा
लाल
और कैसे सजी होंगी ढेरों आँखें समाधि में
तुम जिद्द पर अड़े रहे
धरती है संतरे सी गोल
नहीं माना तुमने
यह हो सकती है तरबूज सी
खैर !
मैंने झूठ कहा तुमसे
अंदाजन कह पाती हूँ
कितना है प्यार तुमसे
सारे अनुमान मेरी भाषा की नाकामी हैं
मुझे चाहिए कुछ विस्मयादिबोधक
उन्माद वाहक
जो करते हैं नाकामियों का
विनम्र अनुवाद
02.
दिन का चढ़ा आधी रात तक उतरता है
अहिस्ता उतरती है रात दिन की सीढ़ियों से
और गुज़रा हुआ दिन टूटे हुए फूल की तरह
बिछ जाता है
इसी पहर उस फूल को किताब में रख के
आईने की तरह पढ़ती हूँ
रात दिन को विस्मृत करती है
दिन रात को रहने नहीं देता
दोपहर की अलसाई नींद
खुलते ही अवसाद करती है
जैसे नींद रात की धरोहर हो
जिसे दिन में लूट लिया जाये
दिन जैसा कुछ भी करना रात के एकांत को कष्ट देता है
रात में लिखी चिठ्ठी पढ़तुम को रात ही में पढ़नी चाहिए
लेकिन फिर भी चिठ्ठी खुलती है सिखर दोपहर
और पढ़तुम को ठीक समझ आती है
कवियों को लिखने चाहिए अपने राग के समय
कविता के भीतर जो बारिश है
उस में भीगने के लिए कब हाथ उठाने चाहिए
फिर भी कभी आप दिन में झुलस रहे हों
तो किसी बारिश सी कविता को याद किया कीजे
दिन और रात की संसृति में
मनचाहा मौसम है
जिन्हें आती है यह जादुगरियां
वह दिन में भी अपनी हर सांस सुनते हैं
और रात में दोपहर-खिड़ी से खिलते हैं
03.
वृत का अर्धव्यास तय कर रहा है
वृत के फैलने की सीमा
केंद्र से हर बिंदु उतना ही दूर सुदूर
तुम्हारा एक पांव कम्पास की सुई है
जो दुसरे पांव के गिर्द घेरे बुनता है
सुई गोंद्ती रहती है हर वक़्त ज़मीन को
तुम फिसलते हो इस गोलाई से बाहर जाने के लिए
और तुरंत उठ खड़े हो जाते हो फैसला बदलकर
तुम्हारी बाजुएँ आकाश नापती है
और पांव धरती
तुम्हारे और अनगिनित दायरे हैं
इसीलिए मैं सबसे पहले तुम्हारे पांव चूमती हूँ
तुम्हारी बाजुएँ अब तक कितना नाप चुकी ?
तुम्हारे नाखून थक गये हैं
इनकी सख्ती बेवजह तो नहीं
इनका टूट जाना दुःख है
तुम्हारे पोरों की छतरी हैं यह नाखून
मुझे इनसे बेहद प्यार है
तुम्हे जो शब्द भाता है
उसे नाखून में छुपा लेते हो
लिखते हो तो वोह शब्द बहने लगते हैं
दिल से साहस रिसता है संग संग
नाखून टूटना दुःख है
तुम्हारे नाखून तुम्हारी यात्रा के स्तम्भ है
इनकी सख्ती तुम्हारे सबसे करीब शब्दों का कवच है
तुम्हारे नाखून तुम्हारे दिल से भी कोमल हैं
अपने पांव से कह दो के धरती अहिस्ता नापे
और बाजुएँ ध्यान से आकाश घेरें
मुझे तुम्हारे नाखूनों से बेहद प्यार है
04.
तुम विराट के प्रेमी
मैं डिबिया की दीवानी
तुम नौका विहारी
मैं अपने लम्बे केशों से परेशान
तुम बनों के देवता
मैं आंगन की बेल
तुम ऋतूओं के सैलानी
मैं अक्षय कार्तिक की प्रभात
तुम इन्दधनुष धनी
मुझे पायल की दरकार
तुम ख्वाब का सौन्दर्य हो
मैं नियति की हरारत
मुझे देखा तुमने
और देखे नाचते हुए मोर
मैंने देखा तुम्हे
और प्रेम बिच्छुआ
----
* (चित्र कृति : पेट मैग्युकिन की पेंटिंग, साभार)
8 टिप्पणियां:
इस प्रविष्टि को अभी कुछ देर पहले री-पोस्ट किया है। कुछ त्रुटियाँ रह गईं थी , सो उन्हें सुधारना जरूरी था। इसी बीच भाई रविकर फैजाबादी की एक टिप्पणी थी ( जो दूबारा पोस्ट करने में उड़ गई है) -
'बढ़िया प्रस्तुति |
कवियत्री और आप को भी
बधाई|'
चारों कविताओं की कहन शैली अनूठी है। चौथी जल्दी भिगो देती है। तीनों में भींगने के लिए देर तक डूबना पड़ता है।
..आभार।
हैरान करती कवितायें...
sundar kavitayen
सारे अनुमान मेरी भाषा की नाकामी हैं
मुझे चाहिए कुछ विस्मयादिबोधक
उन्माद वाहक
जो करते हैं नाकामियों का
विनम्र अनुवाद
विलक्षण
कवि को इतना अंतर्मुखी भी नहीं होना चाहिए,कि कोई कुछ समझ ही न पाए।
अच्छा लगा ये कवितायें पढ़कर।
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