तुर्की कवि ओरहान वेली (१९१४ - १९५०) की कुछ कविताओं के अनुवाद आप 'कबाड़ख़ाना' और 'कर्मनाशा' पर पहले भी पढ़ चुके हैं। ओरहान वेली, एक ऐसा कवि जिसने केवल ३६ वर्षों का लघु जीवन जिया ,एकाधिक बार बड़ी दुर्घटनाओं का शिकार हुआ , कोमा में रहा और जब तक जिया सृजनात्मक लेखन व अनुवाद का खूब सारा काम किया , के काव्य संसार में उसकी एक कविता के जरिए एक बार और प्रविष्ट हुआ जाय। तो आइए देखते पढ़ते हैं यह कविता :
ओरहान वेली की कविता
हो सकता है
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)
पहाड़ी पर बने
उस घर की बत्ती
क्यों जली हुई है
आधी रात के बाद भी?
क्या वे आपस में बतिया रहे होंगे
या खेल रहे होंगे बिंगो?
या और कुछ
कुछ और चल रहा होगा वहाँ...
अगर वे बातें कर रहे होंगे
तो क्या होगा उनकी बातचीत का विषय?
युद्ध?
टैक्स?
शायद वे बतिया रहे होंगें बिना किसी विषय के
बच्चे सो गए होंगे
घर का आदमी अख़बार पढ़ रहा होगा
और स्त्री सिल रही होगी कपड़े।
हो सकता है
ऊपर बताई गई बातों में से
कुछ भी न कर रहे हों वे।
कौन जानता है?
हो सकता है
यह भी हुआ हो कि वे जो कर रहे हैं
उसे काट दिया गया हो सेंसर की कैंची से।
8 टिप्पणियां:
इतनी सहज और सरल कविता। न जाने क्यों मुझे यह कविता पढ़कर शरद बिल्लौरे की याद हो आई। उनकी कविताएं भी इतनी ही सरलता में अपनी बात कहती हैं। दोनों में एक साम्य की दोनों ही अब नहीं हैं और दोनों ही अल्पायु में ही चले गए।
एक अनुरोध है। यहां वैसे ही इतने कम लोग आते हैं उस पर भी आप मॉडरेशन का उपयोग करते हैं। अगर कोई अनुचित टिप्पणी आती भी है तो उसे बाद में हटाया जा सकता है। मुझे लगता है कि कम से कम हमें तो एक खुला वातावरण बनाना चाहिए।
... sundar post !!!
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मुझे तो लगता है कि वे कुछ सर्जन ही कर रहे होंगे!
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वहाँ सिर्फ खामोशी थी
जिसके खुले हुए सिरे एक-दूसरे को काट रहे थे
वहाँ कविता एक शोर की सम्भावना थी।
सिधेश्वर सिंह जी का अनुवाद बेहतरीन है.. .. कविता के ह्रदय को बनाये रखा है.. सहज और सरल कविता.. तुर्की की जमी से ..
achchha anuvad hai.........sahaj shabdo ka prayog......sundar
सरल और सहज जीवन की ऐसी सुंदर अभिव्यक्ति आजकल कम ही देखने को मिलती है. ऐसी खूबसूरत रचना पढ़वाने के लिए आभार.
सादर
डोरोथी.
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