मंगलवार, 25 अगस्त 2009

एक आनलाईन कबाड़ कविता

भीतर भरा पड़ा है कचरा कबाड़
ऊपर -ऊपर सब कुछ  शानदार.
खाट के नीचे रद्दी   का       अंबार
किताबें पत्रिकायें  पुराने अखबार.

बाहर जाओ तो  झोले झक्कड़ में
आती हैं पढ़ने सुनने लायक चीजें
दुनिया बटोर रही है माल -माया
पर ये बाबूजी तो इनपे ही रीझें.

चलो यह भी एक रंग है दुनिया है
यह भी है एक  निज का  ससार .
खाट के नीचे रद्दी का अंबार
किताबें पत्रिकायें पुराने अखबार.

अभी सुबह के  बजे हैं साढ़े छह
रात कबकी कर चुकी है बाय - बाय.
कम्पूटर कर रहा हूँ खिटर - पिटर
किचन में बन रही है फीकी चाय .

जीवन में बन्द नहीं हुए है छन्द के द्वार
इसीलिए शुरु किया  है कविता का कारोबार.
अब घाटा होय सो होय कोई फिकर नहीं
कबाड़ काम में ऐसा होता ही है यार !

भीतर भरा पड़ा है कचरा कबाड़
ऊपर -ऊपर सब कुछ शानदार.
खाट के नीचे रद्दी का अंबार
किताबें पत्रिकायें पुराने अखबार.

4 टिप्‍पणियां:

विजय गौड़ ने कहा…

गा के भी लगाया होता तो मजा आ जाता सिद्धेश्वर भाई।
इस बहाने कहीं आवाज भी दर्ज हो जाती अपने भीतर।
खैर।

Udan Tashtari ने कहा…

बेहतरीन गहन रचना!! वाह!

Ashok Kumar pandey ने कहा…

आ हा हा

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

"भीतर भरा पड़ा है कचरा कबाड़
ऊपर -ऊपर सब कुछ शानदार.
खाट के नीचे रद्दी का अंबार
किताबें पत्रिकायें पुराने अखबार."

शानदार अभिव्यक्ति।
बधाई!