२३ अगस्त २००९ को इंडिपेंडेंट मीडिया इनिशिएटिव सोसायटी , नोएडा द्वारा प्रकाशित हिन्दी की महत्वपूर्ण मासिक पत्रिका 'पाखी' के एक बरस पूरे होने पर दिल्ली में 'पाखी महोत्सव' का आयोजन था जिसके तहत 'पाखी' के संजीव अंक का लोकार्पण , शब्द साधक सम्मान समारोह, वेबसाइट www.pakhi.in का लोकार्पण और 'साहित्य और पत्रकारिता में गाँव' शीर्षक संगोष्ठी का आयोजन किया गया , ऐसी खबर है. निमंत्रण था किन्तु अपनी व्यस्तता और 'दिल्ली दूर है' की कहन को यथार्थ में अनुभव करते हुए मैं इस आयोजन - उत्सव का हिस्सा न बन सका. सो ,आज सोचा कि दूर से ही संपादक अपूर्व जोशी ,कार्यकारी संपादक प्रेम भारद्वाज और पूरी 'पाखी' टीम को बधाई दे दी जाय. बधाई हो बधाई !
परसों ही डाक से 'पाखी' का अगस्त अंक मिला है . अभी पूरा पढ़ नहीं पाया हूँ . संपादकीय 'हंगामा है क्यूँ बरपा' में 'कबाड़खाना' को 'हिन्दी में सबसे ज्यादा पढ़े - लिखे जाने वाले ब्लाग' के रूप में उल्लिखित किए जाते देख खुशी हुई है.'कर्मनाशा' की शुरुआत तो बाद में हुई , मैंने अपनी पहली ब्लाग पोस्ट तो 'कबाड़खाना' पर ही लिखी थी. अच्छा लगता है स्वयं को 'कबाड़ी' कहलाना ! अब 'पाखी' नेट पर भी पढ़ी जा सकेगी , यह अच्छी बात है किन्तु शुरुआत में शायद कुछ तकनीकी दिक्कतों के कारण पूरी सामग्री हिन्दी में दीख नहीं रही है. उम्मीद है यह दिक्कत जल्द ही दूर हो जाएगी. बहरहाल, एक बरस पूरे होने पर तथा हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं के बीच अपनी महत्वपूर्ण जगह बना लेने पर 'पाखी' की पूरी तीम को बधाई !
प्रस्तुत है 'पाखी' के अगस्त २००९ अंक के आवरण की तस्वीर और इसी अंक में ही प्रकाशित अपनी एक कविता 'उत्सर्ग एक्सप्रेस' इस उम्मीद के साथ कि जो लोग इसे 'पाखी' के छपे हुए पन्नों पर न पढ़ पाए होंगे / न पढ़ पाने की स्थिति में होंगे वे संभवत: यहाँ पढ़ लेंगे और जरूरी समझेंगे तो अपनी अमूल्य राय भी देगें.
(अपनी पीढ़ी के कवि अग्रज वीरेन डंगवाल से बतियाते हुए)
एक उदास उजाड़ उनींदा टीसन
इसे रेलवे स्टेशन की संज्ञा से विभूषित करना
एक संभ्रांत शब्द के साथ अन्याय होगा
एक जघन्य अपराध उस शब्दकोश के साथ भी
जो विलुप्त प्रजातियों की लुगदी के कायान्तरण पर
उदित हुआ है आश्चर्य की तरह
और शीशेदार आलमारी में लेटा है निश्चेष्ट।
जाड़े पाले के जादू में लिपटी हुई यह रात
बीत जाने को विकल व्याकुल नहीं है अभी
कितना काव्यमय नाम है इस रेलगाड़ी का
जिससे अभी-अभी उतरा हूँ
माल असबाब और बाल बच्चों के साथ
प्लेटफार्म पर मनुष्य कम दीखते हैं वानर अधिसंख्य
प़फर्श फाटक और लोहे की ठंडी मजबूत शहतीरों पर
काँपते कठुआये हमारे पूर्वज
एक दूसरे की देह की तपन को तापने में एकाग्र एकजुट।
बाहर अँधेरा है
थोड़ा अलग थोड़ा अधिक गाढ़ा
जैसा कि पाया जाता है आजकल
हम सबके भीतर भुरभुराता हुआ
कुछ रिक्शे
कुछ तिपहिए
इक्का दुक्का गाड़ियाँ जिन्हें मोटरकार कहा जाता था कभी
अब वे अपनी रंगत व बनावट से नहीं
ब्रान्ड से जानी जाने लगी हैं
असमंजस में हूँ फिर भी तय करता हूँ-
थोड़ा ठहर लिया जाना चाहिए अभी
भोर होने का इंतजार करते हुए
जैसा कि आम समझदारी का चलन है इन दिनों
अभी कुछ देर और देख लिया जाय वानरों का करतब
उनकी बहुज्ञता और बदमाशी के मिश्रण का कारनामा
किसी किताब में तो मिलने से रहा
उनमें भी नहीं जो वजनी पुरस्कारों से नवाजी जा चुकी हैं
और फिलवक्त मेरे बैग में विराजमान हैं
गर्म कपड़ों साबुन-तौलिए व बिस्कुट नमकीन के पूरक की तरह।
दिन भर भरपूर उजाला
दिन भर पारिवारिक प्रसंग
आशल कुशल संवाद स्वाद
मानो एक बुझते हुए कौड़े की गर्म राख में रमी गर्माहट।
दोपहर में फस्तक मेला
किताबों के कौतुक में इंसानों का रेवड़-
बच्चे किशोर युवा और अधियंख्य बूढ़े
जिनकी वाणी में ही बची है
अरुणाभा की खिसियाहट भरी आँच
स्टालों पर बेशुमार कागज हैं
पर एक भी कोरा नहीं
कंधे छिलते-टकराते हैं
देखता हूँ अगल-बगल
आवारा सज्दे वाले कैफ़ी
दुनिया बदलने को बेचैन राहुल
प्रियप्रवास बाँचते बाबा हरिऔध
अपनी असाध्य वीणा सहेजते सहलाते अज्ञेय
जाने वाले सिपाही से फूलों का पता पूछते मख्दूम
आदि-इत्यादि की श्रेणी से ऊपर-नीचे
साहित्याकाश के और भी दिपदिपाते ग्रह-उपग्रह-नक्षत्रा।
अनुमान करता हूँ
इसी भव्य भीड़-भभ्भड़ और बगल के कमरे में चल रही
कविता की कार्यशाला के बीच
फराकथाओं में देखी गई
किंतु आजकल प्राय: अदृश्य कही जाने वाली आत्मा की तरह
मुस्तैद होंगी चंद जोड़ी खुफिया निगाहें
वांछित नाक-नक्श पहचानने की क़वायद में तत्पर तल्लीन
अपराध-सा करने की लिजलिजाहट से भरकर
खरीदता हूँ दो चार सस्ती किताबें
और एक बड़े मेहराबदार दरवाजे से बाहर निकल आता हूँ
सड़क पर
जहाँ शोर और सन्नाटे रक्तिम आसव रिस रहा है लगातार-
बूँद-बूँद।
कितना काव्यमय नाम है इस रेलगाड़ी का
जिससे आज ही लौटना है आधी रात के करीब
फिर वही टीसन
फिर वही वानर दल
फिर वही प्रतीक्षालय टुटही कुर्सियों वाला
फिर वही अँधेरा
फिर वही सर्द सन्नाटा-खुद से बोलता बतियाता।
कैसे कहूँ कि गया था तमसा के तट पर
वहाँ आदिकवि की कुटिया तो नहीं मिली
पर एक उदास उजाड़ उनींदा स्टेशन जरूर दिखाई दे गया
जहाँ से गुजरती हैं गिनी चुनी सुस्त रफ्रतार रेलगाड़ियाँ
मैं हतभाग्य
अपने ही हाहाकार से हलकान
न मिजवाँ जा सका न पन्दहा
न जोकहरा न सरायमीर
सुना है यहाँ की जरखेज जमीन पर
कभी अंकुरित होते थे कवि शायर तमाम
अब भी होते होंगे बेशक-जरूर-अवश्य
पर उनका जिक्र भर छापने लायक
हम ही नहीं बना पाये हैं एक अदद छापाघर
मरहूम अकबर इलाहाबादी साहब की नेक सलाह
और अपनी तमाम सलाहियत के बावजूद
तनी हुई तोप के मुकाबिल
हम ही निकाल नहीं पाये हैं एक भी अठपेजी अखबार
यह दीगर-दूसरा किस्सा है कि
सब धरती को कागज
सात समुद्रों को स्याही
और समूची वनराजियों को कलम बना लेने का
मंत्रा देने वाला जुलाहा अब भी बुने जा रहा है लगातार-
रेशा रेशा।
अँधेरे मुँह गया
अँधेरे मुँह पलट आया
गोया उजाले से मुँह चुराने जैसे मुहावरों का
अर्थ लिखता-वाक्य प्रयोग करता हुआ
गाड़ी अभी लेट है
कितनी पता नहीं
ऊँघता सहायक स्टेशन मास्टर भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं है
वानरों के असमाप्य करतब में कट रही है रात
यह न पूछो कि कब आएगी 'उत्सर्ग एक्सप्रेस'
पूछ सको तो पूछ लो
इस जगह का नाम
जिसे जिहवाग्र पर लाते हुए इन दिनों चौंक जाता हूँ जागरण के बावजूद
वैसे नींद के भीतर चौंक जाना कौन-सी बड़ी बात है।
गजब है सचमुच गजब
बेटे-बिटिया बड़े शान से इतराए
पूरी कॉलोनी को बताए फिर रहे हैं-
हम लोग एक दिन के लिए गए थे आजमगढ़।
एक उदास उजाड़ उनींदा टीसन
इसे रेलवे स्टेशन की संज्ञा से विभूषित करना
एक संभ्रांत शब्द के साथ अन्याय होगा
एक जघन्य अपराध उस शब्दकोश के साथ भी
जो विलुप्त प्रजातियों की लुगदी के कायान्तरण पर
उदित हुआ है आश्चर्य की तरह
और शीशेदार आलमारी में लेटा है निश्चेष्ट।
जाड़े पाले के जादू में लिपटी हुई यह रात
बीत जाने को विकल व्याकुल नहीं है अभी
कितना काव्यमय नाम है इस रेलगाड़ी का
जिससे अभी-अभी उतरा हूँ
माल असबाब और बाल बच्चों के साथ
प्लेटफार्म पर मनुष्य कम दीखते हैं वानर अधिसंख्य
प़फर्श फाटक और लोहे की ठंडी मजबूत शहतीरों पर
काँपते कठुआये हमारे पूर्वज
एक दूसरे की देह की तपन को तापने में एकाग्र एकजुट।
बाहर अँधेरा है
थोड़ा अलग थोड़ा अधिक गाढ़ा
जैसा कि पाया जाता है आजकल
हम सबके भीतर भुरभुराता हुआ
कुछ रिक्शे
कुछ तिपहिए
इक्का दुक्का गाड़ियाँ जिन्हें मोटरकार कहा जाता था कभी
अब वे अपनी रंगत व बनावट से नहीं
ब्रान्ड से जानी जाने लगी हैं
असमंजस में हूँ फिर भी तय करता हूँ-
थोड़ा ठहर लिया जाना चाहिए अभी
भोर होने का इंतजार करते हुए
जैसा कि आम समझदारी का चलन है इन दिनों
अभी कुछ देर और देख लिया जाय वानरों का करतब
उनकी बहुज्ञता और बदमाशी के मिश्रण का कारनामा
किसी किताब में तो मिलने से रहा
उनमें भी नहीं जो वजनी पुरस्कारों से नवाजी जा चुकी हैं
और फिलवक्त मेरे बैग में विराजमान हैं
गर्म कपड़ों साबुन-तौलिए व बिस्कुट नमकीन के पूरक की तरह।
दिन भर भरपूर उजाला
दिन भर पारिवारिक प्रसंग
आशल कुशल संवाद स्वाद
मानो एक बुझते हुए कौड़े की गर्म राख में रमी गर्माहट।
दोपहर में फस्तक मेला
किताबों के कौतुक में इंसानों का रेवड़-
बच्चे किशोर युवा और अधियंख्य बूढ़े
जिनकी वाणी में ही बची है
अरुणाभा की खिसियाहट भरी आँच
स्टालों पर बेशुमार कागज हैं
पर एक भी कोरा नहीं
कंधे छिलते-टकराते हैं
देखता हूँ अगल-बगल
आवारा सज्दे वाले कैफ़ी
दुनिया बदलने को बेचैन राहुल
प्रियप्रवास बाँचते बाबा हरिऔध
अपनी असाध्य वीणा सहेजते सहलाते अज्ञेय
जाने वाले सिपाही से फूलों का पता पूछते मख्दूम
आदि-इत्यादि की श्रेणी से ऊपर-नीचे
साहित्याकाश के और भी दिपदिपाते ग्रह-उपग्रह-नक्षत्रा।
अनुमान करता हूँ
इसी भव्य भीड़-भभ्भड़ और बगल के कमरे में चल रही
कविता की कार्यशाला के बीच
फराकथाओं में देखी गई
किंतु आजकल प्राय: अदृश्य कही जाने वाली आत्मा की तरह
मुस्तैद होंगी चंद जोड़ी खुफिया निगाहें
वांछित नाक-नक्श पहचानने की क़वायद में तत्पर तल्लीन
अपराध-सा करने की लिजलिजाहट से भरकर
खरीदता हूँ दो चार सस्ती किताबें
और एक बड़े मेहराबदार दरवाजे से बाहर निकल आता हूँ
सड़क पर
जहाँ शोर और सन्नाटे रक्तिम आसव रिस रहा है लगातार-
बूँद-बूँद।
कितना काव्यमय नाम है इस रेलगाड़ी का
जिससे आज ही लौटना है आधी रात के करीब
फिर वही टीसन
फिर वही वानर दल
फिर वही प्रतीक्षालय टुटही कुर्सियों वाला
फिर वही अँधेरा
फिर वही सर्द सन्नाटा-खुद से बोलता बतियाता।
कैसे कहूँ कि गया था तमसा के तट पर
वहाँ आदिकवि की कुटिया तो नहीं मिली
पर एक उदास उजाड़ उनींदा स्टेशन जरूर दिखाई दे गया
जहाँ से गुजरती हैं गिनी चुनी सुस्त रफ्रतार रेलगाड़ियाँ
मैं हतभाग्य
अपने ही हाहाकार से हलकान
न मिजवाँ जा सका न पन्दहा
न जोकहरा न सरायमीर
सुना है यहाँ की जरखेज जमीन पर
कभी अंकुरित होते थे कवि शायर तमाम
अब भी होते होंगे बेशक-जरूर-अवश्य
पर उनका जिक्र भर छापने लायक
हम ही नहीं बना पाये हैं एक अदद छापाघर
मरहूम अकबर इलाहाबादी साहब की नेक सलाह
और अपनी तमाम सलाहियत के बावजूद
तनी हुई तोप के मुकाबिल
हम ही निकाल नहीं पाये हैं एक भी अठपेजी अखबार
यह दीगर-दूसरा किस्सा है कि
सब धरती को कागज
सात समुद्रों को स्याही
और समूची वनराजियों को कलम बना लेने का
मंत्रा देने वाला जुलाहा अब भी बुने जा रहा है लगातार-
रेशा रेशा।
अँधेरे मुँह गया
अँधेरे मुँह पलट आया
गोया उजाले से मुँह चुराने जैसे मुहावरों का
अर्थ लिखता-वाक्य प्रयोग करता हुआ
गाड़ी अभी लेट है
कितनी पता नहीं
ऊँघता सहायक स्टेशन मास्टर भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं है
वानरों के असमाप्य करतब में कट रही है रात
यह न पूछो कि कब आएगी 'उत्सर्ग एक्सप्रेस'
पूछ सको तो पूछ लो
इस जगह का नाम
जिसे जिहवाग्र पर लाते हुए इन दिनों चौंक जाता हूँ जागरण के बावजूद
वैसे नींद के भीतर चौंक जाना कौन-सी बड़ी बात है।
गजब है सचमुच गजब
बेटे-बिटिया बड़े शान से इतराए
पूरी कॉलोनी को बताए फिर रहे हैं-
हम लोग एक दिन के लिए गए थे आजमगढ़।
6 टिप्पणियां:
एक बरस पूरा होने की बधाई ’पाखी’ को!
भौफ़्फ़ाइन कविता!
"गजब है सचमुच गजब
बेटे-बिटिया बड़े शान से इतराए
पूरी कॉलोनी को बताए फिर रहे हैं-
हम लोग एक दिन के लिए गए थे आजमगढ़।"
बहुत सुन्दर!
हमारी ओर से भी पाखी को बधाई!
पाखी पत्रिका विशेषकर इसीलिये खरीदी क्योंकि आप की कविता छपी है...मगर ईमानदारी यही है कि कविता बस अभी अबी पढ़ी है।
आपकी कविताएं..आपके लेख..सभी कुछ एक विशिष्ट वैचारिकता रखते हैं। ये कविता बी उस से परे ना थी...! कभी कभी प्रशंसा कर के किसी चीज को शब्दों में बाँधने का मन नही होता आज भी वही है।....!
शुभकामनाएं
आदरणीय सिँह साहब,
आज़मगढ़ के बहाने हमने भी याद की अपने शहर में पुस्तक मेलों की यादों को, एक एक पहलू पर खोजी नज़र कोई बच नही पाया वो जो बेच रहे हैं, जो खरीद रहे हैं या वे जो बेचे जा रहे हैं बद्ल कर स्याह कागद में।
साहित्य के उजरे संसार में फैले हुये अंधकार को प्रकाशित करती हुई रचना।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
..गुरु गुन लिखा न जाए
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