'ठंडा लोहा' में संकलित डा. धर्मवीर भारती की यह कविता एकांत, विरस ,कड़वे दिनों में बार-बार याद आती है। बहुत लंबे समय तक इसे कोर्स में पढ़ता - पढ़ाता रहा हूँ फिर भी यह हर बार कुछ नया अर्थ खोल जाती है, संभवत: इसीलिए भाती है।अब जबकि ब्लाग पर नए सिरे से कुछ लिखने का मन कर रहा है तब इसे ही चुना है उम्मीद है कि यह अपने समानधर्मा मित्रों को अच्छी लगेगी , सो प्रस्तुत है.
ये फूल, मोमबत्तियाँ और टूटे सपने
ये पागल क्षण, यह कामकाज, दफ़्तर - फ़ाइल
उचटा - सा जी, भत्ता -वेतन
ये सब सच हैं.
इनमें से रत्तीभर न किसी से कोई कम
अंधी गलियों में पथभ्रष्टों के ग़लत क़दम
या चंदा की छाया में भर-भर आने वाली आँखें नम
बच्चों की - सी दूधिया हँसी
या मन की लहरों पर उतराते हुए कफ़न
ये सब सच हैं.
जीवन है कुछ इतना विराट, इतना व्यापक
उसमें है सबके लिए जगह, सबका महत्व
ओ मेज़ों की कोरों पर माथा रख-रखकर रोने वालो
यह दर्द तुम्हारा नहीं सिर्फ़,
यह सबका है, सबने पाया है प्यार
सभी ने खोया है, सबका जीवन है भार
और सब ढोते हैं,
बेचैन न हो ये दर्द अभी कुछ गहरे और उतरता है
फिर एक ज्योति मिल जाती है
जिसके मंजुल प्रकाश में सबके अर्थ नए खुलने लगते
ये सभी तार बन जाते हैं
कोई अंजान उंगलियाँ इन पर तैर-तैर
सबमें संगीत जगा देतीं अपने-अपने
गुथ जाते हैं ये सभी एक मीठी लय में
यह कामकाज संघर्ष विरस कड़वी बातें
ये फूल मोमबत्तियाँ और टूटे सपने...
यह दर्द विराट ज़िंदगी में होगा परिणत
है तुम्हें निराशा फिर तुम पाओगे ताक़त
उन अंगुलियों के आगे कर दो माथा नत
जिनके छू लेने भर से फूल सितारे बन जाते हैं ये मन के छाले
ओ मेजों की कोरों पर माथा रख-रखकर रोने वाले
हर एक दर्द को नए अर्थ तक जाने दो...
ये फूल, मोमबत्तियाँ और टूटे सपने
ये पागल क्षण, यह कामकाज, दफ़्तर - फ़ाइल
उचटा - सा जी, भत्ता -वेतन
ये सब सच हैं.
इनमें से रत्तीभर न किसी से कोई कम
अंधी गलियों में पथभ्रष्टों के ग़लत क़दम
या चंदा की छाया में भर-भर आने वाली आँखें नम
बच्चों की - सी दूधिया हँसी
या मन की लहरों पर उतराते हुए कफ़न
ये सब सच हैं.
जीवन है कुछ इतना विराट, इतना व्यापक
उसमें है सबके लिए जगह, सबका महत्व
ओ मेज़ों की कोरों पर माथा रख-रखकर रोने वालो
यह दर्द तुम्हारा नहीं सिर्फ़,
यह सबका है, सबने पाया है प्यार
सभी ने खोया है, सबका जीवन है भार
और सब ढोते हैं,
बेचैन न हो ये दर्द अभी कुछ गहरे और उतरता है
फिर एक ज्योति मिल जाती है
जिसके मंजुल प्रकाश में सबके अर्थ नए खुलने लगते
ये सभी तार बन जाते हैं
कोई अंजान उंगलियाँ इन पर तैर-तैर
सबमें संगीत जगा देतीं अपने-अपने
गुथ जाते हैं ये सभी एक मीठी लय में
यह कामकाज संघर्ष विरस कड़वी बातें
ये फूल मोमबत्तियाँ और टूटे सपने...
यह दर्द विराट ज़िंदगी में होगा परिणत
है तुम्हें निराशा फिर तुम पाओगे ताक़त
उन अंगुलियों के आगे कर दो माथा नत
जिनके छू लेने भर से फूल सितारे बन जाते हैं ये मन के छाले
ओ मेजों की कोरों पर माथा रख-रखकर रोने वाले
हर एक दर्द को नए अर्थ तक जाने दो...
6 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दा. भारती जी को पढ़वाने का आभार.
पता नहीं क्यों मुझे भारती का शिल्प बहुत पसंद है.
फ़ालो करें और नयी सरकारी नौकरियों की जानकारी प्राप्त करें:
सरकारी नौकरियाँ
ओ मेजों की कोरों पर सिर रख कर रोने वाले........गच्च हो गया। बहुत दिनों से तलाश थी इस कविता की। कैसे आभार प्रकट करूं। काश आप हर शाम रम मिश्रित पानी से पैर धोते होते.....।
ना गलत किया बेटा।
ओ मोजों की कोरों पर माथा ऱख-रख कर रोने वालों...ऐसे।
बहुत बढिया रचना प्रेषित की है।आभार।
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