पता नहीं ,यह कविता है कि उनींदे की लोरी।
बात बस इतनी भर है कि अभी ,इस वक्त नींद के गाँव से कोसों दूर हूँ . कुछ पढ़ने-लिखने -सुनने का मन नहीं -सा है. नेट पर आवारगी भी कुछ भारी पड़ रही है. सो, नीचे जो कुछ भी दिखाई दे रहा है वह सीधे-सीधे यहीं आनलाइन लिखा गया है. अगर यह कविता है तो क्या मान लूं कि कोई तुक है जो इस बेतुके वक्त में साथ -साथ है...खैर॥
अगर फुरसत है तो इसे देख लें.... क्या इसे ही आशुकविता कहते हैं ? बशर्ते अगर यह कविता मानी जाय तो !
हो चुकी है रात आधी
खिड़कियों से झाँकता है
चमचमाता चाँद पूरा गोल अद्भुत-आसमानी.
उँगलियाँ कुछ लिखना चाहें
सामने कागज खुला आकाश - सा है
मन में उठती हैं हिलोरें
पर उन्हें कहने में कुछ अवकाश - सा है
है अजब यह कशमकश
क्या-क्या लिखें -कैसा दिखें
लोग तो समझे है बस कविता - कहानी.
माना यह प्रतिकूल-पंकिल पक्ष
शुक्ल-पक्षी नेह को मुँह है बिराता
यह भी माना तमस अपने तीर लेकर
बेधता -सा बींधता -सा आ ही जाता
क्या कहीं ऐसा नहीं कि
मैं नए उन्मेष से विरमित -विरत हो
बस लिए बैठा हूँ कुछ सुधियाँ पुरानी ?
हो चुकी है रात आधी
खिड़कियों से झाँकता है
चमचमाता चाँद पूरा गोल अद्भुत-आसमानी.
13 टिप्पणियां:
वाह!इतनी बेहतरीन कविता लिखी है आपने।एक चित्र -सा खीच दिया है। बहुत बढिया रचना है।बधाई स्वीकारें।
चाँद और दिल दो बातों को जोड़ती-सी यह कविता बहुत सुन्दर लगी!
बेहतरीन है.
चन्द्र-भू पर माफियाओं की, नजर हैं,
स्वप्न मे उनके, यहाँ सजते, नगर है।।
"खिड़की में कटी हैं सब रातें
कुछ चौरस और कुछ गोल कभी"
गुलज़ार याद आ गए
उँगलियाँ कुछ लिखना चाहें
सामने कागज खुला आकाश - सा है
मन में उठती हैं हिलोरें
पर उन्हें कहने में कुछ अवकाश - सा है
बहुत सुंदर ..
गर सीधे सीधे बेमन से आप ऐसा लिखते है तो मन से क्या लिखते होगे...वैसे आपकी खिड़की पसंद आयी
अनुराग जी की बात तो से सहमत कि आप बिना मन के ऐसा लिखते हैं, तो मन से लिखेंगे तो क्या कहर करेंगे :) :)
behad khubsurat
"बस लिए बैठा हूँ कुछ सुधियाँ पुरानी।"
पुरानी सुधियों की दुनिया में ले जाती कविता। बहुत सुंदर।
आपकी कविता को मैंने जितना समझा -
'हो चुकी है रात आधी
खिड़कियों से झाँकता है
चमचमाता चाँद पूरा गोल अद्भुत-आसमानी'
-अंधेरी रात में चाँद एक आशा बंधाता है.
'उँगलियाँ कुछ लिखना चाहें
सामने कागज खुला आकाश - सा है
मन में उठती हैं हिलोरें'
- कुछ सकारात्मक -सार्थक करने को मन बेताब है.
'पर उन्हें कहने में कुछ अवकाश - सा है
है अजब यह कशमकश
क्या-क्या लिखें -कैसा दिखें
लोग तो समझे है बस कविता - कहानी.
माना यह प्रतिकूल-पंकिल पक्ष
शुक्ल-पक्षी नेह को मुँह है बिराता
यह भी माना तमस अपने तीर लेकर
बेधता -सा बींधता -सा आ ही जाता
क्या कहीं ऐसा नहीं कि
मैं नए उन्मेष से विरमित -विरत हो
बस लिए बैठा हूँ कुछ सुधियाँ पुरानी ?'
- कर्म करने में मन की दुविधा या कहें मनोबल की कमी आड़े आ रही है.
'हो चुकी है रात आधी
खिड़कियों से झाँकता है
चमचमाता चाँद पूरा गोल अद्भुत-आसमानी'
-परिस्तिथियाँ मौजूद हैं कर्म की प्रेरणा हेतु.
प्रियवर सिद्धेश्वर जी।
कोई आँखों को मलता है, कोई जल्दी सो जाता।
नव-आगन्तुक ब्लॉग जगत का,दें आशीष विधाता।।
आपके ब्लॉग पर कुछ नया देखने की इच्छा थी।
सिद्धेश्वर जी, यह तो अच्छा भला नवगीत है तुकबंदी क्यों कह रहे हैं।
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