पिछले कुछ दिनों से जी कुछ उचटा - सा है. इसलिए ब्लाग पर आना और कुछ लिखना हो नहीं पा रहा है. लगता है कि कहीं कुछ खो - सा गया है.
भाई विजयशंकर चतुर्वेदी ने 'कबाड़खाना' पर आख़िरी मुग़ल सम्राट बहादुरशाह 'ज़फ़र' पर तीन पोस्ट्स की एक बहुत अच्छी सीरीज पेश की है. इस 'बदनसीब' शायर से मेरा रिश्ता बहुत गहरा और पुराना है . ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ते समय 'ज़फ़र' की शायरी ने इतना प्रभावित किया था कि अर्थशास्त्र की कापी में 'दो गज जमीं भी न मिली' वाली ग़ज़ल उतार डाली थी और भरी क्लास में नालायक - नाकारा की उपाधि पाई थी. और तो और उसी अंदाज में कुछ खुद भी लिखने की कोशिश की थी. यह सब बिगड़ने के शुरुआती दिन थे..
आज भाई विजयशंकर जी की पोस्ट पढ़कर 'ज़फ़र' की शायरी का सुरूर बेतरह तारी है. आइए सुनते हैं यह ग़ज़ल -स्वर है रूना लैला का...
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी .
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी ।
भाई विजयशंकर चतुर्वेदी ने 'कबाड़खाना' पर आख़िरी मुग़ल सम्राट बहादुरशाह 'ज़फ़र' पर तीन पोस्ट्स की एक बहुत अच्छी सीरीज पेश की है. इस 'बदनसीब' शायर से मेरा रिश्ता बहुत गहरा और पुराना है . ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ते समय 'ज़फ़र' की शायरी ने इतना प्रभावित किया था कि अर्थशास्त्र की कापी में 'दो गज जमीं भी न मिली' वाली ग़ज़ल उतार डाली थी और भरी क्लास में नालायक - नाकारा की उपाधि पाई थी. और तो और उसी अंदाज में कुछ खुद भी लिखने की कोशिश की थी. यह सब बिगड़ने के शुरुआती दिन थे..
आज भाई विजयशंकर जी की पोस्ट पढ़कर 'ज़फ़र' की शायरी का सुरूर बेतरह तारी है. आइए सुनते हैं यह ग़ज़ल -स्वर है रूना लैला का...
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी .
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी ।
ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार,
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी ।
उसकी आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू ,
कि तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी.
चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन ,
जैसे अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी
8 टिप्पणियां:
ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार,
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी sunvaney ka shukriyaa bahut
मोहब्बत का यह सफर जारी रहे! क्या बात है आपकी, रूना लैला की और ज़फ़र की!
चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन ,
जैसे अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी
लाजवाब!
मैंने भी बारहवीं के दौरान जफ़र को मंच पर अभिनीत भी किया था और उनकी यह ये गजल जो शायद उन्ही की है भी तरन्नुम में गाई थी यह न थी हमारी किस्मत कि विसाल यार होता ,अगर और जीते हम तो बस इंतज़ार होता ! अब जो यह गजल आपने उद्धृत की है उसे जहाँ तक मुझे याद है मेहंदी हसन जी ने भी गाया है .
शुक्रिया !
दो गज़ ज़मीन वाली ग़ज़ल मैंने भी अपनी डायरी में नोट की थी। इस ग़ज़ल भी बेकरार कर देती है।
मेंहदी हसन की आवाज़ में तो बारहा सुनता रहा हूँ ये ग़ज़ल आज बहुत दिनों बाद रूना जी की आवाज़ में सुनना उतना ही अच्छा लगा।
बेहतरीन ग़ज़ल उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद.
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