शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

हथेलियों में कई तरह की नदियाँ होती हैं


बच्चे कितना कुछ जानते हैं और हमें अक्सर लगता है कि हम और केवल हम ही कितना कुछ जानते हैं। पॊडकास्टिंग कैसे करते हैं? यह मेरे लिए अभी तक एक रहस्य था और इस बाबत कई लोगों से पूछा भी. कई लोगों ने इसे एक कठिन और श्रमसाध्य जुगत बताया. 'अनुनाद' ब्लाग चलाने वाले संभावनाशील युवा कवि और मेरे शहरे - तमन्ना नैनीताल के कुमाऊँ विश्वविद्यालय में उपाचार्य भाई शिरीष कुमार मौर्य ने फोन पर इसके बारे में विस्तार से जानकारी भी दी किन्तु मैं ठहरा मूढ़मति, सो ठीक से समझ न सका. कल एक कार्यक्रम में शामिल होने के सिलसिले में दिनभर घर से बाहर रहा. शाम को जब आया तो पता चला कि बच्चों ने छुट्टी का सदुपयोग करते हुए कंप्यूटर पर खूब कारीगरी की और कुछ आडियो फाइलें तैयार कर लीं. आज सुबह बच्चों ने मुझे यह करतब सिखाया और उसी का प्रतिफल यह पोस्ट है- मेरी पहली पॊडकास्ट. यह कैसी बन पड़ी है , मैं क्या कह सकता हूँ लेकिन बिटिया हिमानी और बेटे अंचल जी को शुक्रिया - थैंक्स - धन्यवाद कहने के साथ ही 'कर्मनाशा' के पाठकों के समक्ष अपनी एक पुरानी कविता 'हथेलियाँ' प्रस्तुत कर रहा हूँ जो त्रैमासिक पत्रिका 'परिवेश' (संपादक : मूलचंद गौतम) के २२वें अंक (जुलाई - सितम्बर १९९५) में प्रकाशित हुई थी -




हथेलियाँ

लोग अपनी हथेलियों का उत्खनन करते है
और निकाल लाते हैं
पुरातात्विक महत्व की कोई वस्तु
वे चकित होते है अतीत के मटमैलेपन पर
और बिना किसी औजार के कर डालते हैं कार्बन - डेटिंग.
साधारण -सी खुरदरी हथेलियों में
कितना कुछ छिपा है इतिहास
वे पहली बार जानते हैं और चमत्कॄत होते हैं.

हथेलियों में कई तरह की नदियाँ होती हैं
कुछ उफनती
कुछ शान्त - मंथर - स्थिर
और कुछ सूखी रेत से भरपूर.
कभी इन्हीं पर चलती होंगीं पालदार नावें
और सतह पर उतराता होगा सिवार.
हथेलियों के किनार नहीं बसते नगर - महानगर
और न ही लगता है कुम्भ - अर्धकुम्भ या सिंहस्थ
बस समय के थपेड़ों से टूटते हैं कगार
और टीलों की तरह उभर आते हैं घठ्ठे.

हथेलियों का इतिहास
हथेलियों की परिधि में है
बस कभी - कभार छिटक आता है वर्तमान
और सिर उठाने लगता है भविष्य.
हथेलियों का उत्खनन करने वाले बहुत चतुर हैं
वे चाहते हैं कि खुली रहें सबकी हथेलियाँ
चाहे अपने सामने या फिर दूसरों के सामने
हथेलियों का बन्द होकर मुठ्ठियों की तरह तनना
उन्हें नागवार लगता है
लेकिन कब तक
खुली - पसरी रहेंगी घठ्ठों वाली हथेलियाँ ?

8 टिप्‍पणियां:

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

वाह..! बुलंद आवाज़...! और आपकी कविता पर याद आया ये शेर दीवाने फिल्म के एक गीत का.....

तुमने देखा ही नही अपनी हथेली को कभी,
इसमे भूले से कहीं, मेरी भी लकीर तो है....!

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

बहुत बढ़िया !

विजय गौड़ ने कहा…

क्या मैं भी शिरीष को ही फ़ोन करूं या आप ही मेल कर देंगे कैसे फ़ैलाया जाता है आवाज का जादू। सुंदर है। अपन को भी सिखा दो भाई।

अमिताभ मीत ने कहा…

बहुत खूबसूरत. सब कुछ.

डॉ .अनुराग ने कहा…

सच में पहले तो ये शीर्षक खीच लाया फ़िर आप की ईमानदार अभिव्यक्ति ने जैसे कदम थम दिए ....एक शेर हम भी छोड़ जाते है......

"अपनी हथेलियों को खोले बैठा है आज वो
कल तक बताता था जो सबका मुकद्दर "

Vineeta Yashsavi ने कहा…

हथेलियों का इतिहास
हथेलियों की परिधि में है
बस कभी - कभार छिटक आता है वर्तमान
और सिर उठाने लगता है भविष्य.


Bahut Achha

सुशील छौक्कर ने कहा…

पढ तो लिया जी क्या कहे एकदम अनोखी सी यह रचना। बहुत खूब है जी। सुन नही पाऐगे बेटी सोई हुई है बाद में सुनेगे। वैसे ये आवाज कैसे डालते है हमें भी बता दें।

बेनामी ने कहा…

'हथेलियों का उत्खनन करने वाले बहुत चतुर हैं
वे चाहते हैं कि खुली रहें सबकी हथेलियाँ
चाहे अपने सामने या फिर दूसरों के सामने
हथेलियों का बन्द होकर मुठ्ठियों की तरह तनना
उन्हें नागवार लगता है'

-धारदार कविता के लिए साधुवाद.